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बिहारी-सतसई
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कुबत=कुवार्त्ता, निन्दा। त्रिभंगीलाल=बाँकेबिहारीलाल—मुरली बजाते समय पैर, कमर और गर्दन कुछ-कुछ टेढ़ी हो जाती है, जिससे शरीर में तीन जगह टेढ़ापन (बाँकपन) आ जाता है—वही त्रिभंगी बना है।

संसार भले ही निंदा करे, किन्तु हे दीनदयालु, मैं अपनी कुटिलता छोड़ नहीं सकता; क्योंकि हे त्रिभंगीलाल, मेरे सीधे चित्त में बसने से तुम्हें कष्ट होगा (सीधी जगह में टेढ़ी मूर्त्ति कैसे रह सकेगी? त्रिभंगी मूर्त्ति के लिए टेढ़ा हृदय भी तो चाहिए)।


मोहिं तुम्हैं बाढ़ी बहस को जीतै जदुराज।
अपनैं-अपनैं बिरद को दुहुँ निबाहन लाज॥७०४॥

अन्वय—मोहिं तुम्हैं बहस बाढ़ी, जदुराज को जीतै, अपनैं-अपनैं बिरद की लाज दुहुँ निबाहन।

मुझमें और तुममें बहस छिड़ गई है, हे यदुराज! देखना है कि कौन जीतता है। अपने-अपने गुण की लाज दोनों ही को निबाहना है। (तुम मुझे तारने पर तुले हो, तो मैं पाप करने पर तुला हूँ; देखा चाहिए किसकी जीत होती है!)


निज करनी सकुचें हिं कत सकुचावत इहिं चाल।
मोहूँ-से अति बिमुख त्यौं सनमुख रहि गोपाल॥७०५॥

अन्वय—गोपाल, निज हिं करनी सकुचें इहिं चाल कत सकुचावत, मोहूँ-से प्रति बिमुख त्यौं सनमुख रहि।

हे गोपाल, मैं तो अपनी ही करनी से लजा गया हूँ, फिर तुम अपनी इस चाल से मुझे क्यों लजवा रहे हो कि मुझ-जैसे अत्यन्त विमुख के तुम सम्मुख रहते हो—(मैं तुम्हें सदा भूला रहता हूँ, और तुम मुझे सदा स्मरण रखते हो!)


तौ अनेक औगुन भरी चाहे याहि बलाइ।
जौ पति सम्पति हूँ बिना जदुपति राखे जाइ॥७०६॥

अन्वय—जौ सम्पति हूँ बिना जदुपति पति राखे जाइ तौ अनेक औगुन भरी याहि बलाइ चाहै।