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बिहारी-सतसई
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समय पलट जाने से—जमाना बदल जाने से—प्रकृति भी बदल जाती है। (फलतः प्रकृति के वशीभूत होकर) अपनी चाल कौन नहीं छोड़ देता है? इस पापी कलियुग में करुणा के भंडार (श्रीकृष्ण) भी करुणा-रहित (निष्ठुर) हो गये! (तभी तो मेरी पुकार नहीं सुनते!)

अपनैं-अपनैं मत लगे बादि मचावत सोरु।
ज्यौं-त्यौं सबकौं सेइबौ एकै नन्दकिसोरु ॥७१०॥

अन्वय—अपनैं-अपनैं मत लगे बादि सोरु मचावत, ज्यौं-त्यौं सबकौं एकै नन्दकिसोरु सेइबौ।

अपने-अपने मत के लिए व्यर्थ ही लोग हल्ला मचा रहे हैं। जैसे-तैसे सभी को एक उसी श्रीकृष्ण को उपासना करनी है। (सर्वदेवो नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति।)

नोट—'है अछूती जोत उसकी मन्दिरों में लग रही, मस्जिदों गिरजाघरों में भी दिखाता है वही। बौद्ध मठ के बीच है दिखला रहा वह एक हो, जैन-मन्दिर भी छुटा उसकी छटा से है नहीं॥"—'हरिऔध'।

अरुन सरोरुह कर-चरन दृग खंजन मुख चंद।
समै आइ सुन्दरि सरद काहि न करति अनंद ॥७११॥

अन्वय—अरुन सरोरुइ कर-चरन, खंजन दृग, चंद मुख, सरद-सुन्दरि समै आइ काहि अनंद न करति।

लाल कमल ही उसके हाथ-पाँव हैं, खंजन ही आँखें हैं, और चन्द्रमा ही मुखड़ा है। (इस रूप में) शरद ऋतु-रूपी सुन्दरी स्त्री समय पर आकर किसे आनन्दित नहीं करती?

नोट—शरद-ऋतु में कमल, खंजन और चंद्रमा की शोभा का वर्णन किया जाता है। यथा—"पाइ सरद रितु खंजन आये" और "सरद-सर्वरी नाथ मुख सरद-सरोरुह नैन"—तुलसीदास।

ओछे बड़े न ह्वै सकैं लगौ सतर ह्वै गैन।
दीरघ होहिं न नैकहूँ फारि निहारैं नैन ॥७१२॥