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बिहारी-सतसई
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इहिं द्वैहीं मोती सुगथ तूँ नथ गरबि निसाँक।
जिहिं पहिरैं जग-दृग ग्रसति लसति हँसति-सी नाँक॥८९॥

अन्वय—नथ! तूँ इहिं द्वैहीं मोती सुगथ निसाँक गरबि, जिहिं पहिरै नाँक हँसति-सी लसति, जग दृग ग्रसति।

सुगथ=सुन्दर पूँजी। गरबि=अभिमान कर ले। हँसति-सी लसति=सुघड़ जान पड़ती है। ग्रसति=फँसाती है।

अरे नथ! तू इन दो ही मोतियों की पूँजी पर निःशंक होकर गर्व कर ले; क्योंकि तुझे पहनकर (उस नायिका की) नाक हसती-सी (सुन्दर शोमासम्पन्न) दीख पड़ती है और संसार की आँखों को फाँसती है।

नोट—एक उर्दू-कवि ने कहा है—'नाक में नथ वास्ते जीनत के नहीं। हुस्न को नाथ के रक्खा है कि जाये न कहीं! जीनत= खूबसूरती। हुस्न=सौन्दय्र्य।

बेसरि-मोती धनि तुही को बृझै कुल जाति।
पीबौ करि तिय-अधर को रस निधरक दिन-राति॥९०॥

अन्वय—बेसरि मोती तुहीं धनि! कुल जाति को बूझै, तिय अधर को रसु, निधरक दिन-राति पीबो करि।

अरे बेसर में गुँथा हुआ मोती! तू ही धन्य है। (भाग्यवान्) कुल और जाति कौन पूछता है? (अलबेली) कामिनियों के (सुमिष्ट) अधरों का रस तू निर्भयता-पूर्वक दिन-रात पिया कर।

नोट—'को बूझै कुल जाति' से यह मतलब है कि मोती तुच्छ सीप कुल से पैदा हुआ है, तो भी उसे ऐसा सुन्दर सौभाग्य प्राप्त है, जिसके लिए कितने कुलीन नवयुवक तरसते रहते हैं!

बरन बास सुकुमारता सब बिधि रही समाइ।
पँखुरी लगी गुलाब की गात न जानी जाइ॥९१॥

अन्वय—गात लगी गुलाब की पँखुरी जानी न जाइ। बरन बास सुकुमारता सब बिधि समाइ रही।

(नायिका की) देह पर लगी गुलाब की पँखुरी पहचानी नहीं जाती---