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बिहारी-सतसई
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कंचुकी=स्तनों के कसने की चोली। चुपरी=चिपटी हुई, सुगंधित सटी या कसी हुई। सेत=सफेद। आँकनु=अक्षरों, शब्दों।

सटी हुई उजली सारी और कंचुकी के भीतर स्तन नहीं छिपते। कवि के शब्दों के अर्थ के समान वे साफ देख पड़ते हैं।

नोट—यों ही एक कवि ने स्त्री के कंचुकी-मण्डित कुच और कवि के गूढार्थ-भाव-संवलित शब्दों की तुलना करते हुए कहा है—

कवि-आखर अरु तिय-सुकुच अध उघरे सुख देत।
अधिक ढके हू सुखद नहिं उघरे महा अहेत॥

भई जु छबि तन बसन मिलि बरनि सकैं सु न बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी आँगी आँग दुरै न ॥११५॥

अन्वय—बसन मिलि जु तन छबि भई सु बैन न बरनि सकैं आँग-ओप आँगी दुरी, आँगी आँग न दुरै।

सु=सो, वह। ओप=कान्ति, प्रभा। आँगी=अँगिया, चोली। दुरी=छिप गई।

वस्त्र से मिलकर उसके शरीर की जो छबि हुई, वह वचन द्वारा नहीं वर्णन की जा सकती—उसके वर्णन में वाणी (मुग्धता या असमर्थता के कारण) मूक हो जाती है। (उसके) अंग की कान्ति से (उसकी) चोली ही छिप गई, चोली से अंग (स्तन) न छिप सके!

नोट—पीताम्बर की चोली अङ्ग की चम्पक कान्ति में छिप गई।

भूषन पहिरि न कनक कै कहि आवत इहि हेत।
दरपन कैसे मोरचे देह दिखाई देत ॥११६॥

अन्वय—कनक कै भूषन न पहिरि, इहि हेत कहि आवत, दरपन कै मोरचे-से देह दिखाई देत।

कनक=सोना। कहि आवत इहि हेत=इसलिए कहा जाता है। मोरचे=धब्बे।

सोने के गहने तू न पहन, यह इसलिए कहा जाता है कि (वे गहने) दर्पण में लगे धब्बे के समान (तेरी) देह में (भद्दे) देख पड़ते हैं।