चढ़ने-उतरने में) जरा भी नहीं थकती। चतुर (नायक) के प्रेम में फँसी वह नट का बट्टा बनी रहती है--जिस प्रकार नट अपने गोल बट्टे को सजा उछालता और लोकता रहता है, उसी प्रकार वह भी ऊपर-नीचे आती-जाती रहती है।
लोभ लगे हरि-रूप के करी साँटि जुरि जाइ।
हौं इन बेंची बीच हीं लोइन बड़ी बलाइ॥१९६॥
अन्वय--हरि-रूर के लोभ लगे जुरि जाइ साँटि करी। इन बीचहीं हौं बेंची लोइन बड़ी बजाइ।
साँटि करी=सौदे की बातचीत कर डाली। जुरी जाइ=मिलकर। हौं=मुझे। लोइन=लोचन, आँखें।
श्रीकृष्ण के रूप के लोभ में पड़ (उनकी आँखों से) मिलकर (मेरी आँखों ने) सट्टा-पट्टा किया--सौदे की बातचीत की। (और बिना मुझसे पूछताछ किये ही!) इन्होंने मुझे बीच ही में बेच डाला--ये आँखें बड़ी (बुरी) बला हैं!
नई लगनि कुल की सकुच बिकल भई अकुलाइ।
दुहूँ ओर ऐंची फिरति फिरकी लौं दिन जाइ॥१९७॥
अन्वय--नई लगनि कुल की सकुच अकुलाइ बिकल भई। दुहूँ ओर ऐंची फिरति दिन फिरकी लौं जाइ।
सकुच=संकोच, लाज। ऐंची फिरति=खिंची फिरती है। फिरकी=चकरी नामक काठ का एक खिलौना, जिसमें डोरी बाँधकर लड़के नचाते फिरते हैं। लौं=समान। दिन जाइ=दिन कटते हैं।
(प्रेम की) नई लगन (एक ओर) है और कुल की लाज (दूसरी ओर) है। (इन दोनों के बीच पड़कर) वह घबराकर व्याकुल हो गई है। (यों) दोनों ओर खिंची फिरती हुई (उस नायिका के) दिन चकरी के समान व्यतीत होते हैं।
इततैं उत उततैं इतैं छिनु न कहूँ ठहराति।
जक न परति चकरी भई फिरि आवति फिरि जाति॥१९८॥