पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१०५

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विहारीविहार ।।

कव की ध्यान लगी लखौं यह घर लगि है काहि ।। डरियत ऋङ्गी कीट लौं जिन वह ई व्है जाहि ॥ ६७ ॥ . जिन वह ई ठहै जाहि कीट भृङ्गी लौं नागरि। कठपुतरी ल ठठक गई। है रूप उजागरि ॥ सुकवि अहै यह प्रान हु तें प्यारी हम सबकी । जाइ वेगि ससझाउ अली मैं विनवत कब की ॥ १६ ॥

  • रही अचल सी व्है मन लिखी चित्र की आहि ।।

तजे लाज डर लोक को कहो बिलोकलि काहि ॥ ६८ ॥ कहो विलकति काहि. विसरि कै सुधि अँचरा की । अलकावली झुमाइ भृकुटि हू कीन्हे बाँकी ॥ कछु तिरछी कछु झुकी हँसति कछु कछुक विकल सी । धन्य सुकवि जिहिँ लखत तिया व्है रही अचल सी ॥ १०० ॥ | पल न चलें जकि सी रही थकि सी रही उसास । | अब हाँ तन रितयौ कहा मन पठयो किहिँ पास ॥६९॥ | मन पठयो किहिँ पास अव हिँ नवजोवनमाँती । सूधे परत न पाँव उनमनी सी दरसाती ॥ वहकि चलत सी कछुक रुकत पुनि कै दृग चंचल । सुकबि हिँ लखि लखि मोरि मोरि मुख हँसत पल हिँ पल ॥ १०१ ॥ युनः । । | मन पठयो किहिँ पास कपलन परिगई पीरीं । सुधि न कछु तोहि देखु

  • गिरि गई कर की बीरी ॥ पुलकि पसीजति रैन दिना नहिँ परत नेक कल ।।

सुकवि तोहि भयो कहा थकित सी होत पल हिँ पल ॥ १०२ ॥ यह दोहा अनवरचन्द्रिका और कृष्णदत्तकविकृत टीका में नहीं है। ...