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बिहारिवहार । । सरकावति सारी ॥ टेढ़ी ग्रीवा किये रहुति उचकाइ भौंह सी । सुकंबि सीख की बात सुनन जनु लई साँह सी ॥ ३७० ॥ . . . . . . . .
| *उर लीने अति चटपटी सुनि मुरलीधुनि धाय। | हाँ निकसी हुलसी सु तौ गौ हुल सी उर लाय॥३१०॥ गौ हुल सी उर लाय बोरि जनु विष में झुलसी । घुलसी घबराहट गई। घट मैं लाज हु भुलसी॥ पुल सी बाँधी बानन की पुनि मैनः बहादुर सुलसी तुलसीमालावारो सुकवि धस्यो उर ॥ ३७१ ॥ .
- सुरति न ताल रु ताने की उटै न सुर ठहराय।।
एरी राग बिगारि गौ बैरी बोल सुनाय ॥ ३११ ॥ बैरी बोल सुनाय ठगोरी सी कछु करि गो । सूझत नाहिँ अलाप हाय
- . हियरौ हरि हरि गो ॥ ओड़ो खाँडो भेद बिसरि गयो सुकवि ततच्छिन ।
- चादी संवादी अनुवाद विवादी सुरति न ॥ ३७२ ॥
| चितवन भोरे भाय की गोरे मुँह मुसकानि । लगनि लटकि आलीगरै चित खटकत नित अनि ॥३१२॥ :
- चित खटकति नित अनि कपोलन अलकहटावन । अँचरा. झुकत स-
- म्हारि फेर धैं उटसरकावन । ओठ उमॅठि ऍठि भौंहन मन की कछु जितवनि ।
- सुकवि अर्जी वह खटक रही है भारी चितवन ॥ ३७३ ॥ . .
ॐ यह दोहा शृङ्गारसप्तशती में नही है। डुल = शूल। श- से प्रायः ह हो जाता है ॥ गद के का । सीधा पेट में गोदने का हाथ भी हुल कहाता है । कटार कत्ती आदि पेट में घोब देना हुल मारना
- प्रसिद्ध है ॥ : यह दोहा शृङ्गारसप्तशती में नही है। . .. ... ::
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