| विहाराविहार।।
- तो पर चारों उरबसी सुन राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी व्है उरबसी समान ॥ ३२३ ॥ उरवसी सम्मान करत मोहन को मोहन । तिलोत्तमा साँ तिलोत्तमा । तेरी छवि सोहन ॥ मैनका हु मैं मैं न काहु छन छवि पाई वर । रम्भा रम्भा सरिस सुकवि वारों में तो पर ॥ ३९४ ॥ | तू मोहनमन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि गुवालि। उठे सदा नटसाल लौं सौतिन के उर सालिं॥३२४॥ सौतिन के उर सालि रही दृग दुसह वान लाँ। भौहँन धनुष चढ़ाय रही।
- है पेंचि कान लाँ ॥ अञ्जनरञ्जनाविष बुताय अकुलावत सी तन । सुकवि
छिपी है अजव व्याध सी तू मोहनमन ॥ ३६५ ॥ पियमन रुचि व्है है कठिन तनरुचि होत सिँगार । । लाख करो आँख न बढ़े बढ़े बढ़ाये बार ॥ ३२५॥ बढे बढ़ाये वार कसें चिकनाई वगारें । नैन बड़े नहिँ होत किहूँ विधि
- फारि निहारें ॥ मोती लरझर करत सँवारहु किते अङ्ग सुचि । सुकबि फिरत
नहिँ नखरा कीन्हे कछु पियमनरुचि ॥ ३६६ ॥
- उर्वशी एक अप्सरा का नाम है उसे मैं तुझ पर वारु', क्योंकि तू मोहन के उर में, उरवसी
समान ( उरबसी = धुकधुकी भूपेण ) वसी तेरो छवि तिलोत्तमा नामक अप्सरा से भी तिल भर उत्तम हो है (तिलभर बढ़ के कहना अधिकता के तात्पर्य से महावरा है)। मैने मेनका अप्सरा में भी किसी । क्षण अच्छी छबि न पाई । और रम्भा अप्सरा तो रन्भा सी हो गई अर्थात् कैले कै 'खम्भे की भाति ठण्टी ।
- पढ़ गई । इन सवको मैं तेरे ऊपर वार डालू अथवा वलिहारी ॥
. *नटसाल = एक प्रकार का बाण (दो० ३३० की टिप्पणी में स्पष्ट है)..:...:..: