पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१९

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भूमिका । । ‘सेद सलिल रोमांच कुस गहि दुलही अरुनाथ ।। दियों हियो सङ्कल्प करि हाथ धरें ही हाथ ॥” . पलन प्रगट बरुनीन बढ़ि छन कपोल ठहराय । अँसु परि छतियाँ छनक छनछनाय छपि जाय ॥” ... “दृग उरझत टूटत कुटुम ज़रते चतुरसँग प्रीतिं । परत गाँठि दुरजनहिये दई नई यह रीति ॥” दूसरे बिहारी जी की कविता में प्रायः असाधारण भगवत्प्रेम टपका पड़ता है जैसे -- ब्य छैहाँ त्यों हाँहुगो हाँ हरि अपनी चाल । हठ न करो अति कठिन है मोतारिबो गोपाल ॥”. . “बन्धु भये को दीन के को तारयो जदुराय । ।. तूठे तुठे फिरत हो झूठे विरद कहाय ॥” । “अपने अपने मत लगे वादि मचावत सोर। ज्य त्य, सवक सेइवो एकै नन्दकिसोर ॥,,

  • जप माला छाप तिलक सरै ने एक काम । ।

मन काँचे नाँचे वृथा साँचे राचे राम ।,,, “हरि कीजत तुम स यही विनती बार हजार। जिहिं तिहिँ भाँति अत्यो रहाँ परयो रहाँ दरबार ॥,, तीसरे बिहारी जी ने स्वाभाविक बोल चाल, स्वाभाविक सौन्दर्य और स्वाभाविक प्रथा का अति लालित्यपूर्वक कयन किया है जैसे- . “अहै कहै न कहा कह्यौ तोस नन्दकिसोर । बडुवाली कत होत है बड़े दृगन के जोर ॥,, अपनी गरजन चोलियत कहा निहोरो तोहि । तू प्यारो मोजीय को मोजी प्यारो मोहि ॥,

  • गदराने तन गोरटी ऐपनड़ लिलार ।।

हूट्यो दै अठिलाय दृग करै आँवारि सुमार ,,