पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१९३

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११० | बिहारीविहार । बहकि बड़ाई आपनी, कत राचत मतिभूल ।। बिन मधु मधुकर के हिये, गड़े न गुड़हर फूल ॥ ३७० ॥ गड़े न गुड़हर फूल नाहिँ चम्पा मन भावे । कर्कस अर्ककली हु नाहिँ कछु जिय'तरसावै ॥ करु केते सिंगार तोहि नहिँ चहै कन्हाई । हरिहिय राधा रहति सुकबि माति बहंकि बड़ाई ॥ ४४३ ॥ अनियारे दीरधनयन किती न तरुनि समान । वह चितवनि औरै कछु जिाहँ बस होत सुजान ॥ ३७१ ॥ जिहिँ. बस होत. सुजान अहँ, नैना वे औरे । बनत बनाये नाँहि कियँ नखरे के तौरै ॥ भौंह नचाइ लपेट हु क्यों नाहिँ काजर कारे । अहँ, सुकाबः बस . । करन तोऊ कोउ दृग अनियारे । ४४४ ।। . पुनः जाहिँ वस होत सुजान अहे सो डीठि बसीकर । मदनमन्त्र की सारभरी सी अमीधारझर ॥ धन्य अली तुअ नैन किये बस मुरलीबारे । वारत तन मन सुकाव देखि तुअ दृग अनियारे ॥ ४४५ ॥: । हाहा बदन उघारं दृग सफल करें संबं कोई । | रोज सरोजन कै परै हँसी ससी की होइ ॥ ३७२.॥;. हँसी ससी की होइ चमक चाँदनी लजावै । सुधाधार सी बरसि चरसि । जनहिय हरसावै ॥ रूप भिखारिन कछू भीष दै ठानि उछाहा । सुकवि बदन । दिखराउ वारने ज़ाऊँ हाहा ॥ ४४६ ॥ .:: ::......

  • गुड़हर= हुड़हुल ॥ जैसे दो० ३६० मैं ॥ . .. . . :...:.:.: .