पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२१२

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३.A4.4.4.4..3.444444,454544444444444************ विहारविहार ।। १२६ मरन भलो चर विरह हैं यह विचार चित जोइ । । मरन छुटे दुख एक को विरह दुहुँ दुख होई ॥ ४३३ ।। विरह दुहुँ दुख होइ मरन है या तें नीको । जु पै मीच करि कृपा मनोरथ पुजवे जी को ।। हाय हाय करि सखियन को लेनो परै सरन । सुकवि सुचि- म तई पहें सब व्हेहै कयै मरन ॥ ५१७ ॥ पुनः | विरह दुहुँ दुख होइ मरन स चढ़ि छन छन मैं । देखि सखिन हूँ के क- के लेस व्यापत तन मन मैं ॥ सुकवि हु चरनत याहि वहावत नैन नीर झर । सुनि रोवत सव हाय विरह तें सरन भलो वर ॥ ५१८ ॥ मरिवे का साहस कियो बढी विरह की पीर ।। दौरति है समुहँ ससी सरासज सुभि समीर ।। ४३४ ।। | सरसिज सुरभि समीर सामुहँ सुन्दर दौति । गै वै रागवसन्त सहचरी सखिन निहारति ॥ गुच्छ गुलावन गहाते ट्रानि निहुँचे जरिये को । सुकवि कुञ्ज मैं चैति तिय पन करि सरिबे को ।। ५१९ ॥ सुनत पथिक सुहँ साहनिसि लुएँ चलति उहिँ ठाम । विन वृझे विन ही सुनें जियति विचारी वाम ॥ ४३५ ।। जियति विचारी वास उन हु निज विरह विचारें । होइ दुखी ऐहँ काऊ दिन यह निचे धारें । अारा विथा ३३ याँही नित मन हिँ मन गुनत । सुन्न । सान व् रहन सुनायें सुकवि नहिं सुनत ॥ ५२० जियत विचारी वाम विरह दुख उन हूँ को गुनि । देत दुई कों दास में दिखा दिन अपने पुनि ।। सुकत्रि विकल अति हाति कान करि कोकिल ५ कुछ युः । र टाढी पृछि बात साई सुनात पथिक मुहँ ।। ५२१ ॥