पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२१४

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14444444444444444444444444; विहारीविहार ।। अतिसिथिल सवे तन ॥ अधरराग विथुस्यो विधुरी पुनि कुटिल केसतति ।। सुकवि हीय सौं हटत न छवि जो देखी लाहि रति ।। ५२३ ॥ गड़ी कुटुम की भीर मैं रही बैठि दै पीठि।। तऊ पलक परि जाति उत सलज हँसाँहीं दीठि ॥ ४३७ ।। | सलज हँसाँहीं दीठ रुकत रोकी तउ नाहीं । विनु मन इत उत हेरि ललचि पुनि उत फिरि जाहीं ॥ झीने पट सों रुकै न रोकी अति सै उमड़ी। सुकवि भीर हू का करिहै हिय पीय छबिगड़ी ॥ ५२४ ॥ | सलज हसाँहीं डाठि भौंह दोऊ फरक । मुलकत दोऊ कपोल होत छन छन पिय साह ॥ घोरा ल मन दौरि रह्यो हरिढिग गतिं ठुमकी । सुकवि । भलें धसि रहो भीर अति गड़ी कुटुम की ॥ ५२६ ॥

  • परसत पछत लखि रहति लगि कपोल के ध्यान ।

कर लै पिय पाटल विमल प्यारी पठये पान ॥ ४३९ ।। | प्यारी पठये पान कपोल हि की दुति दरसत । सो लखि लखि कै पुलकि पसीजत प्यारो हरसत ॥ हियरे कण्ट लगाइ चूमि अतिसै हिय सरसत ।। सुकवि पेखि पुनि पुनि उहि पछत पुनि पुनि परसत ॥ ५२६ ।। सहज सचिकन स्याम रुचि सुचि सुगन्ध सुकुमार । गनत न मन पथ अपथ लखि विथुरे सुथरे वार ।। ४४० ।।

  • : विधुरे सुधेर वार जाल से अहें पसारे । देखते ही छन माहिँ डसत जैसे

। अहि कार । चितवन चित हरि लेत उपाय सुकवि कुछ चनत न । वाँचे रहि- । यो सचे बुरे कच सहज सचिन ।। ५२७ ॥ ॐ नधान्न अशी नचन्द्रिका में एमी दोहे के अन्त में संयोगवियोगकरधननामक किरन के समाह मानते हैं।