पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२१५

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। १३२ विहाराविहार । छुटे छुटावें जगत तें सटकारे सुकुमार । :: :::: सन बाँधत बेनी बँधे नील छबीले बार ॥ ४४१ ॥: " नील छवीले बार अरुझि हियरो अरुझावैं । इँघुरवारे घूमि झुकें जिय 4 अधिक घुमावें ॥ लटकावत जनु लटक छला परि चित्त छलावें ॥ बँधे बँधावै सुकवि केस तुअ छुटे कुटावें ॥ ५२८ ॥ . | *कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगो इतो उदोत । । बंक बिकारी देत ज्यॊ दास रुपैया होत ॥ ४४२॥ दाम रुपैया होत एक ही देत बिकारी । है स होत असरफ़ी जानत दु-

  • निया सारी । तेहरी चौहरी भई भिंगी लट अलग अलग जुटि । छवि करोर

में गुन करी सुकवि लख कुटिल अलक छुटि ॥ ५२६ ॥ | कच समेटि कर भुजे उलटि +खए सीस पट टारि । काको मन बाँधे न यह जुरो बाँधनहारि ॥ ४४३ ॥ जुरो बाँधनहारि जकरि बाँधात जन जियरो । हह हहरि ही उठत हहा हमरो हू हियरो ॥ पट स टकि उड़ाई मुरंत मोरति तिय बिनु डर । मन समेटि लै चली सुकबि यह कच समेटि कर ॥ ५३०॥ नीको लसत लिलाट पर टीको जटित जराय।::. छवि हिँ बढ़ावत रवि मनो ससिमडल में आय ॥ ४४४ ।। 'एनसिंमंडल में आय सीतसुख राब हू पावत । रतन व्याज ग्रह मंडल लै । सुकवि हिँ तरसावत ॥ यासु मधुरता लखंत जगत सब है, गयो फीको । हरपावन जी को ती को टीको अति नको ॥ ५३१ ॥ s यह दोहा शृङ्गारशप्तसती मे नही है। *** खए = खवे = कन्धे । " ।