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बिहारी बिहार ।

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| बिहारीविहार। उलटि पराये ।। धीरसमीरनझारफुरस फुरसत से घिरि घिरि । निज घर घर मैं घुसे सुकवि नवपथिक सबै फिरि ॥: ६६३ ॥ . . . . . नाहिन ये *पावकप्रबल लुएँ चलति चहुँ पास। मानौ बिरह बसन्त के ग्रीषम लेत उसास ॥ ५६८॥ | ग्रीषम लेत उसास निरस है दुख उपजावत । विरहताप जनु तपें आप । औरन हुँ तपावत ।। रैन हु मैं नहिँ चैनं मित्र हू रिपु भये याही । सुकवि आह की लपट उठेत दावागिन नाहाँ ॥ ६६४ ॥":" । | कह लाने एकत रहत अहि मयूर मृग बाघ । | जगत तपोवन सो कियो दीरघदोघ निदाघ ॥ ५६९ ॥ दीरघदाघ निदाघ बाघ मृग मत बनाये । अहिगन केकीपुच्छछाँह सोवत सचे पाये । जग्य अगिन सी दहक रही दावानल हदह । कियो तपोवन सरिस जगत यह सॉच सुकवि कह ॥ ६६५ ॥ । | बैठि रही अति सघबन पैठि सदन तन माँह । • देखि दुपहरी जेठ की छाँह हु चाहति छाँह ।। ५७० ।। | छाँह हु चाहति छाँह घुसि गई मालतिकुञ्जन । ठण्ढहु चाहति ठण्ढ करति सरवरतल मञ्जन ॥ निसि हू निसि ही माँहि छिपी सी कछु कंछु प्रगटात.। सीरी सुकवि वयार निकुञ्जन बैठि रही अति ॥ ६६६ ॥ पावसघनअंधियार में रह्यो भेद नहिँ आन। .. रातिद्यौस जान्यो परै लाख चकई चकवान ॥ ५७१॥ • लखि चकईचकवान परसि के पुनि सुकुताहल । देखि देखि कोडासरसर* अग्नि से भी प्रवल ॥ * दुखपाकर (लल्लूलाल) ः यह दोहा हरिप्रसाद के ग्रन्थ में नही है।