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२०८
बिहारी बिहार ।

२०८ बिहारीबिहार।

  • ज्य अनेक अधमनि दियौ मोहू दीजै मोष ।..

तौ बाँधौ अपने गुननि जौ बाँधे हीं तोष ॥ ७०१ ॥ जो बाँधे हीं तोष इहाँ नाहीं कब कीनी । जो ई नचायो नाँच मैहुँ सोई । गति लीनी ॥ खुसी भये तो सुखी करत नाहिन म क क्यों नहिं राजी तो । सुकवि जान दीजै आयो ज्यें ॥ २३ ॥ ..... .... पुनः

  • चलत पाय निगुनी गुनी धन मनिमोतीमाल।।

| भेट भये जयसाह सौं भाग चाहियत भाल ।। ७०२॥ भाग चाहियत भाल भले जैसाहदुआरे । आप अभागेजन हु किये अति सम्पतिवारे। कोसलदसनरेस सुकीरत लसहु धरातल । जौ ल कविता सुकाव । लसत रवि चन्द हिमाचल ॥ २४ ॥ माल भाग ही जहाँ मान को मान्यो कारन । गुन औगुन पुनि गन्यो जात नहिँ जिन दरबारन ॥ दूर हि स डण्डोत करत हम तिन काँ तजि छल ।। सुकबि गुनगहन कौसलेस जस रहहु अति अचल ॥ २५॥ रहत न रन जयसाहमुख लखि लाखन की फौज। जॉचि निराखेर हू चलै लै लाखन की सौज ।। ७०३ ॥

  • यह और ग्रन्थों में सोरठा है परन्तु यहां कुण्डलिया के लिये दोहे के आकार से रक्खा है। हरिप्रकाश ।
  • में दोहा ही माना है। ' यह दोहा हरिप्रसाद के अन्य में नही है। इस दोहे में तो जयसाह का

वर्णन है और आनुवादकार पण्डित हरिप्रसाद ने अपने गुणग्राही काशिराज महाराज चैतसिंह को में नाम दे के अनुवाद किया है जैसे “तिष्ठति न चेतसिंहं दृष्ट्वा रिपु सैन्यमधिकमपिलक्षात्। याचित्वाऽक्षर

  • रहितोऽप्यमितधर्नर्यव्रजति लब्धा” ॥ ऐसे ही दोहा संख्या ७०४,७०६,७०, के अनुबाद में भी जयसाह

का अनुवाद घेतसिंह किया है जैसे *श्रीचेतसिंहदेहः प्रतिफलितोभाति दर्पणागारे । मन्ये जगज्जयार्थं । कामेनाकृततनुव्यूहः” “कवचाचैः सन्नाः सन्नाः सन्तु सैनिकाः सर्वे । श्रीचेतसिंहनृपते विजयो हस्त :