पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/३४

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। . .. दोहों का क्रम । ... । ॐ बिहारी ने क्रमशः तो अन्य बनाया ही नहीं है, प्रत्युत उनके दोहीं का यह संग्रह है। इस कारण दोहों का क्रम भिन्न भिन्न टीकाकारों ने भित्र भित्र प्रकार का अपनी अपनी रुचि के अनुसार मान में रखा है। अतएव यह एक बड़ी आपत्ति है कि किसी एक दोहे का अर्थ कई टीकाओं में देखना हो

  • तो टीका की पोथी लेके पत्रे उलटते ही बैठे रहिये । इसी उपद्रव के हटाने को ग्रन्यान्त में भिन्न भिन्न

प्रसिद्ध टौकाओं के अलग अलग क्रम की सूची बड़े परियम से वना के प्रकाशित की है । ( मैं जी० ए•

  • ग्रेयर्सन् साहव बहादुर का अत्यन्त धन्यबादी हूं कि उनने अपने ग्रन्थ छपने के पहले ही मुझे निज सूची

में दिखलाई धौ जिसमें से उनकी सम्मति के अनुसार मैंने अनवरचन्द्रिका और कणदत्त कवि की टीका

  • का क्रम ज्यों का त्यों उठा लिया है )

महाराज जयसिंह ही की सभा के विहान् नै तो यह ग्रन्थ बनाया और आश्चर्य है कि महाराज । जयसिंह ही ने इस ग्रन्थ के विषय में कुछ न किया । न तो उनका बैठवाया कोई क्रम ही है और न उननै टौका ही रचवाई। पर आश्चर्य है कि भारतवर्षविनाशकारी औरङ्गजेब के तीसरे लड़के सुलतान में जमशाह का चित्त बिहारीसत्सई ने खींचा और उनने अनेक कवियों को नियत कर नायिका- नायकभेद के अनुसार दोहों का क्रम रखा। यह अजमशाही क्रम कहलाता है । लालचन्द्र ने यही । क्रम अपनी टीका के लिये रखा और मैंने भी निज विहारीविहार इसी क्रम पर बँधा है। जम- शाही क्रम के पहलेहो किसी पुरुपोत्तमदास जी ने भी एक क्रम बँधा था ! इसके अनुसार हरिप्रकाश । टोका है। अपर टीकाकारों के अपने अपने क्रम भिन्न भिन्न हैं। परन्तु उनमें सब से विलक्ष क्रम रसचन्द्रिका टीका के रचयिता नवाव ईसवी खां का है। इन नायिका नायक का चरखा छोड़ केवल अकारादि क्रम से ही दोहे रख दिये हैं । ( केवल प्रथम अक्षर का ध्यान रखा है द्वितीय तृतीय अक्षर का कोई क्रम नहीं है ) ॥ कागीबासी दिकवि मन्नालाल जी ( मैरे मामा ) ने भी हनुमानकवि और बाबू हरिन्द्र जी की सम्पति से एक क्रम वांधा था पर उस क्रम में केवल मून ही छापा टीका नहीं। इसलिये उसका क्रम सूची में ग्राह्य नहीं किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज़मगाही कम र झमीं से अच्छा है । ( सृचौ देने से इसका ग्रानन्द मिलता है ) सात सौ । मार्कण्डेय पुराण में दुर्गापाठ में ०० ० मन्त्र हैं। घर यह सप्तगती कहलाती है। प्राकृत में हान्न कृत समगतिका (वैक्रम पठशतक में रचित) जगत् प्रसिद्ध हैं ३ । गोवईनाचार्य को भी मात मी संख्या

  • पी लगी इनने वैक्रम तेरहें शतक में प्रार्यामप्तशतो बनाई। इसमें अकारादि क्रम में अयि हैं और
  • इक सप्तशती भीर सप्तगतिका पदों के अपभ्रंग सतसई और सतसइया पद हैं।

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