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संक्षिप्त निजवृतान्त ।

संक्षिप्त निजवृतान्त । मेरे पिताजी ने देखा कि खेल की प्रवृत्ति का रुकना कठिन है और स्वाभाविक प्रवृत्ति को रोकना । २ अनुचित भी है तो मुझे बुद्धिमत्ता के खेल में लगाया ॥ अतः मेरे पिताजी ने स्वयं तथा और गुणियों से * में मदद दिलवा के सुझे कौतुक और शतरंज आदि सिखलाये ॥ काशीस्व प्रसिद्ध विहान् पण्डित धनश्यामजी गौड़ ने मेरा उपनयन कराया ॥ १० वर्ष के वय में मैं हिन्दी भाषा में कुछ कुछ कविता करने लग गया था। परन्तु मेरी कविता को जो सुनता था वह क-

  • कृता था कि इनको वनाई कविता नहीं हैं, पिताजी से बनवाई है ।

जब कुछ लोग मेरी अवहेला करते थे और मैं उदास होता था तब मेरे पिता जी यह श्लोक कहते थे। | कसलिनि सलिनीकरोषि चैतः किमिति वकैरवहेलितानभिज्ञः। परिगतमकरन्दमार्सिकास्ते जगति भवन्तु चिरायुषो मिलिन्दाः ॥” अर्थात् मूर्ख बगुले अनादर करें तो कमलिनी को दुःखित न होना चाहिये भगवान् करे उसके । मन्मन्न वन्नर चिरञ्जीवी रहैं । इनदिनों मणिदेव के पुत्र सुप्रसिद्ध हनुमानकवि और हिजकवि मन्नालाल, गोस्वामी दम्पतिकिशोर » । पन्नाव के.वावा निहालसिंह आदि मैरे पिताजी के पास काव्य पढ़ते थे सो मैं भी उनलोगों का पाठ यथा *

  • शक्ति सुनता था और कविता करता था सो सुनकर सब कोई भी मेरा उत्साह बढ़ाते थे। इसी दशवर्ष के

के वय में से प्रस्तार नष्टोद्दिष्टादि में कुशल हो गया था । । सं० १.२६ में जोधपुर के राजगुरु ओझा तुलशीदत्तजी काशी में आये। मैं स्वयं भी अच्छे कबि *

  • तथा पहलवान थे । और कवि तथा पहलवानों से बड़ी चाह से मिलते थे। मेरे पिताजी से इनने भी

। पढ़ना आरम्भ किया और काशी के सभी कविजन का इनके यहां सम्मान हुआ ॥ इन दिनों इनके यहां है

  • एक समस्या उड़ रही थी. वही समस्या हुनने मुझे भी दौ॥ : ... ।

समस्या-“जनि तोरड नेह को काचो तगा ।--इस पर मैं यह पूर्ति कर लाया । मुरली तजि के तरवार गही अरु जामा गह्यो तजि पीरो झगा । तजी अम्बिकादत्त सबै हम हूँ अझै सँच कौन को कौन सगा ॥ कहियो तुम ऊधव सँवरे सों इहँ प्रेम को पन्धं पंगा सो पगा। इन जोग विराग कटकन सों जनि तोरहु नेह की काचो तगा ॥ मति जीरहु प्रीति चहदिस मैं तुम कोऊ दिना लेला खैहो दगा । : कवि अम्बिकादत्त परें वल के वरि पुनि पचहू कोऊ जगा ॥ सुरझावहु सँठ हिये की हहा मन के सव भर्मन देहु भगा ।

जिय की अरुझावनि ऐचनि सों जनि तीरहु नेह को काचो तगा ॥

संक्षिप्त निजवृतान्त ।