पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/५०

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| बिहारीसत्सई की व्याख्याओं का संक्षिप्त निरुपण । में नाव पर लादकर अगरे लाये गरीवी गई घर बनवाया रामायणः ३•, ४०/५०) को विकती थी । ॐ ऐसेही प्रेमसागर २०, को ३०, को इत्यादि. यहाँ ठाठकर फिर वे कलकत्त हो चल दिये और वहीं मरे इनके पास चिट्ठियां अंग्रेजों की अच्छी २ घी उन्हें दिखाकर दयालजी ने एक स्कूल जारी है ने किया । होते ९ वह आगरा कालेज हो गया कुनवे के सब उसमें नौकर हो गये, ये लोग लल्ल जी के । समय से कुछ बढ़े, भाषा में लल्ल जी मनूलाल, हरीरामजी ये अच्छे थे, हाल अव बुरा है। कर्जा देना,

  • है। मकानपर नौवत गई। कोई भाषा में अच्छा नहीं भया । भंगपौना मत रहना ।”

लग्नुलाल के ग्रन्यों में सबसे उत्तम लालचन्द्रिका है और इसी ग्रन्थ से इनकी विद्या की सारगर्भता प्रगट होती है । यह विहारी सतसई के जमशाही क्रम के अनुसार उसी ग्रन्थ पर टौका है। यह अन्य पहले पहल लल्लूलाल ने स्वयं अपने ही छापखाने में सन् १८१८ में छपवयी फिर सन् १८६४ में

  • साइटनेस में ( पण्डित दुर्गादत्त ) दस कवि ( मेरे पिता जी ) ने छपवाया और अन्यत्र भी अनेक जगह
  • कृपा है। लोग कहते हैं कि काशीराज महाराज चेतसिंह के दरवार के कबिवर लाल कवि ने भी एक

। सतसई को टीका लालचन्द्रिका नाम से बनाई यदि यह सच भी हो तो वह ग्रन्थ अलभ्य है ॥ ये लाल । कवि और वे लोन कवि एक तो कभी नहीं हो सकते हैं क्योंकि दोनों में समय का भी ५० वर्ष का अागा पीछा होता है तथा काशीवाले तो भाट धे उनके वंश में अभी तक उसी दरवार में हैं और ये तो में औदीच्य गुजराती घे ॥ हा यह है कि ये भी लाल कवि कहलाते थे जैसा दुनने स्वयं लिखा है कि । टीका की कविलाल ने” ॥ यह ग्रेय संवत् १८०५ माघ सुदी ५ शनि को समाप्त हुआ था । नङ्गलाल राधावल्लभ संप्रदाय के वैष्णव हों तो कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि इनने कृष्ण चरित ही

  • विशेष लिखा है और प्रायः अपने ग्रत्यारम्भ में वैसाक्षी मङ्गल किया है जैसे लालचन्द्रिका "श्रीराधा

में दक्षभो नयति" और इस ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि “राधाकृष्ण प्रसादात् सम्पूरणम् ॥ यह तो स्पष्टही है कि वे संस्कृत के विद्वान् न घे, क्योंकि एक तो इनने जो जो संस्कृत के अनुवाद में किये उन उनके भजभाषानुवाद ही उनके सहायक थे जैसे उनने स्वयं लिखा है कि एक वरप में चार पोधो का तरलमा व्रजभाषा से रखते की होली में किया, सिंहासन बत्तीसी, वेतालपचीसी, स- कुन्तला नाटक भी माधोनल॥” (इनने हिन्दी के लिये रेत की वोली पर दिया है। क्या अभी तक इस भाषा का कोई नाम नहीं स्थिर हुआ था ? ) दूसरे इनके लेख में संकृत विद्या की दुर्वलता पद ॐ पद में प्रगट होती है। जैसे इतने पपने छपवाये लालचन्द्रिका ग्रन्य में प्रारम्भही में लिखा है यह मङ्गलाचर्भ अन्यकरता विहारीलाल कवि कहता है ५ नायिका के ठिकाने 'नायक' तो इनने प्रतिदोई पर कहा हैं । योवन के लिये योवन निखा है जैसे दो• ४५६ की टीका "नावका नवयोवना” । दोहा । में १५५ को टीका में इत्यनुप्रास के ठिकाने 'त्यानुप्रास' लिखा है ॥ दुनने तात्पर्य के ठिकाने ‘तातपर्य' | परीक्षा के ठिकाने 'परिहा' ही बरावर लिखा है जैसे टो• ३८६ की टोका में ॥ अन्य के अन्त में 1114