पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१०

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अस्त व बाकी तमामश बसूरत ख़र बाशद या निस्फ़श आहू व निस्फ़श सग।" ( दरि० लता )

देखा आपने! सैयद इंशा की दृष्टि में उन लोगों की यह दशा है जो किसी तरह 'उर्दू' जान चुके हैं पर भूलचूक से कभी अनजान में एकाध ऐसे प्रयोग कर जाते हैं जो उर्दू में तो नहीं पर उसके आसपास प्रचलित हैं। नतीजा यह होता है कि उनका मुँह तो मुँह मान लिया जाता है पर उनका शरीर गदहे का शरीर समझ लिया जाता है, अथवा उदारतावश आधा हरिण और आधा कुत्ते का मान लिया जाता है। जब देहली प्रांत के पठित मुसलमानों को यह दशा है तो अन्य प्रांतों के गँवार हिंदुओं की क्या गति होगी? किस प्रकार उनके शब्द और प्रयोग दरबारी उर्दू में दाखिल कर लिए जायँगे? भला वह सच्ची हिंदुस्तानी कब बन सकेगी?

अच्छा, तो एक 'ताजःजवान' के ईजाद की जरूरत ही क्यों पड़ी? उसके बिना जनता का कौन सा काम अटक रहा था? बात यह है कि औरंगजेब को कूटनीति तथा सांप्रदायिक कट्टरता के कारण मुसलिम शासन के जोड़ उखड़ गए थे। मुगल सम्राट् ले दे कर किसी तरह 'किला मुअल्ला' में अपने दिन काटते थे। फारस से न तो अब फारसी के चुने हुए कवि ही आ सकते थे और न इस विकट परिस्थिति में फारसी को कोई नवीन प्रोत्सा- हन ही मिल सकता था। रही हिंदी अथवा भाषा की बात। सो वह मजा की लोकभाषा थी। उसमें कुछ खुल कर जौहर