पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१२

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शौक हुआ और धीरे धीरे उर्दू दूसरे शहरों में भी अपना पाँव पसारने लगी। पर कलकत्ते में गौरांग प्रभुओं को पा कर उसने अपना जो रंग जमाया उसका फल यह हुआ कि वेचारी लोकभाषा हिंदी कहीं की न रह गई और धीरे धीरे उसकी जगह उर्दू को मिल गई। फिर क्या कहना था! उर्दू हिंदुस्तानी या मुल्की जबान के नाम से आगे बढ़ी और अपनी जान में हिंदी को दफना दिया। दरबार या सरकार में कहीं उसका निशान भी न रह गया।

उर्दू के विषय में अब तक जो कुछ कहा गया है उससे इतना तो स्पष्ट ही है कि जनता से उसका कुछ भी सीधा संबंध नहीं है। याद रहे, जनता से हमारा तात्पर्य केवल हिंदू जनता से ही नहीं बल्कि उस मुसलिम जनता से भी हैं जो नजीव या उर्दू की नहीं है। प्रश्न उठता है कि 'दिल्लीवाल' लोगों के उजड़ वसने और देश के भिन्न भिन्न नगरों में जा रहने के पहले वहाँ के लोग अपनी जन्मभाषा के अतिरिक्त कोई और अन्य भाषा जानते थे अथवा नहीं। निवेदन है, जानते थे और अच्छी तरह जानते थे। कुछ लोग तो उससे कविता भी कर लेते थे। तो वह भाषा आखिर थी कौन सी? 'अवधी' के विषय में अब हम कुछ और न कहेंगे पर इतना अवश्य संकेत कर देंगे कि कुछ उसका भी प्रचार बिहार में या। रही 'देहलवी' की बात। उसके संबंध में पहले ही कहा जा चुका है कि उसका व्यवहार बराबर देश के भिन्न भिन्न प्रांतों में होता रहा है और देहली के लोग हिंदू मुसलमान दोनों ही बरा-