पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१८

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हिंदुस्तानी का अर्थ वही है जो आज की हिंदी अथवा नागरी का, न कि उर्दू अथवा किसी दरवारी जबान का। अब―

“किसी को इस बात का उजुर नहीं होए के उपर के दफेका लीखा हुकुम सम से वाकीफ नही है हरी ऐक जिले के कलीकटर साहेव को लाजीम है के इस आइन के पावने पर ऐक ऐक केता इसतहारनामा निचे के सरह से फारसी वो नागरी भाखा को अछर मे लीखाऐ के अपने मोहर वो दसतखत से अपने जिला के मालीकान जमीन वो ईजारेदार जो हजुर मे भालगूजारी करता उन सभी के कचहरि में वो अमानि महाल के देसि तहसीलदार लोग के कचहरी लटकावहीं” ( अंगरेजी सन् १८०३ साल ३१ आईन २० दफा )।

निदान, हमको विवश हो मानना पड़ता है कि कंपनी सरकार ने आरंभ में जिस भाषा तथा जिस लिपि को देशी भाषा तथा देशी लिपि होने के नाते अदालत में स्थान दिया वह और कुछ नहीं बल्कि वही हमारी चिर परिचित परंपरागत हिंदी भाषा तथा नागरी लिपि है जो आज न जाने क्यों बनावटी और कल की चीज़ बताई जा रही है। बिहार, वही विहार जहाँ की वह देशी भाषा तथा देशी लिपि आज से न जाने कितने दिनों पहले मानी जा चुकी थी, आज उसी हिंदी भाषा तथा उसी हिंदी नागरी लिपि को बक-दृष्टि से देख रहा है और किसी हिंदुस्तानी के कल्पित नाम से न जाने कौन सी अजनवी भाषा को ईजाद कर रहा है। याद रहे, आज भी 'खुशबयान' लोगों में उन्हीं की गणना है जो 'नजीब दिल्लीवाल' नहीं तो कम से कम उनके मुरीद तो अवश्य हैं। हिंदुस्तानी डिक्शनरी के विधाता मौलाना अब्दुल