पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(२२)

ध्यान दीजिए और देखिए कि बिहार में हिंदी की क्या गति हुई। उनका सगर्व कहना है—

“सन् १८३७ ई॰ में जब फ़ारसी ज़बान अदालतों और सरकारी दफ्तरों से ख़ारिज की गई तो सूब: बिहार में (जो उस ज़माने में सूब: बंगाल में शामिल था) फ़ारसी की जगह उर्दू ने ले ली। लेकिन इसके कुछ अरसे बाद मुल्क में एक भी जमाअत पैदा होगई जो उर्दू ज़बान और उर्दू रस्मख़त की मुख़ालिफ़त शद व मद से करने लगी। उस जमाअत की मुसलसल कोशिशों का नतीज: यह हुआ कि हुकमत बंगाल: ने सन् १८८१ ई॰ में एक एलान के ज़रिय: से सूब: बिहार में हुई रस्मख़त की जगह हिंदी रस्म ख़त जारी कर दिया। बावजूद इसके उर्दू ज़बान और उर्दू रस्मख़त अदालतों और सरकारी दफ़्तरों से बिल्कुल ख़ारिज न हुआ। ज़बान तो वहीं (उर्दू) रही लेकिन रस्मख़त बदल गया। क़ानूनी इस्तलाहात वही हैं जो साबिक़ में थीं। संस्कृत आमेज़ हिंदी का अदालतों और सरकारी दफ़्तरों में अब तक रिवाज नहीं हुआ। लेकिन ऐसा सुनने में आया है कि एक जमाअ़त इस कोशिश में है कि क़ानूनी इस्तलाहात भी संस्कृत में बना कर रायज की जाएँ। उम्मीद नहीं कि यह कोशिश बार आवर हो।" ('उर्दू', जुलाई सन् १९३७ ई॰ पृ॰६५३; अंजुमन तरक्की उर्दू हिंद का रिसाला)

मौलाना हक के अंतिम वाक्य के विषय में हमें जो कुछ कहना है वह अभी नहीं कह सकते। अभी तो हमें यह बता देना है कि उक्त ऐक्ट में इस बात का स्पष्ट निर्देश है कि फारसी भाषा धीरे धीरे हटा दी जाय, पर कहीं इस बात का संकेत भी नहीं है कि उसकी जगह उर्दू को दी जाय। सच पूछिए तो उसका स्पष्ट आशय यह