पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/४१

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भिन्न भिन्न भाषाओं, विशेषतः मराठी और तैलंगी की जान के लाले पड़ गए और समूचे हिंद में उर्दू की आँधी छा गई। किंतु फिर भी उन्हीं के सफल हाथों में हिंदुस्तानी का भार सौंपा गया, उस हिंदुस्तानी का जो 'शुमाली हिंद' की मामूली बोलचाल की जबान है। मानो जनूबी हिंद में (हैदराबाद) वे इसी का अभ्यास करते रहे है। कहा जाता है कि सफल खिलाड़ी दाव नहीं चूकता, फिर मौलाना हक ही क्यों चूकने लगे? वह भी उस समय जब उनके अगल बगल दाएँ बाएँ जामा मिल्लियः देहली और दार-उलमुस-न्नफीन आजमगढ़ जैसी हिंदुस्तानीपरस्त संस्थाओं के प्राण बैठे हों। उन्होंने चट उसको अपने सिर आँखों पर ले लिया और अपनी हिंदुस्तानी नीति की स्पष्ट घोषणा भी कर दी। वह निष्पक्ष नीति है—

"जिसमें वह तमाम अरबी फ़ारसी लफ़्ज आजाने चाहिए जो मुस्तनद हिन्दी मुसन्निफ़ों नें इस्तमाल किए हैं, इसी तरह वह तमाम हिन्दी और संस्कृत अल्फ़ाज़ भी शरीक किए जायँ जो मुस्तनद उर्दू मुसन्निफ़ों के कलाम में पाए जाते हैं।" (वही, पृ॰ ४५७)

ध्यान देने की बात यहाँ यह है कि अब 'हिंदुस्तानी लुग़त' के लिये हिंदू-मुसलिम-कौम का प्रश्न नहीं रह गया, बल्कि उसको हिंदी-उर्दू प्रश्न बना दिया गया। देखने में तो सांप्रदायिकता से जान बची, पर असलियत यह है कि इससे उर्दू का बड़ा भारी हित हो गया। वह कैसे, इसे भी देख लें।

दुनिया जानती है कि उर्दू के मैदान में आने और हरएक की