ज़बान पर चढ़ने के पहले मुसलमान जिस देशभाषा को अपनाते थे वह हिंदी ही थी। हिंदी ही में उनकी काव्यरचना भी चलती थी। उत्तर के मुसलिम कवियों की तो बात ही क्या, दक्खिन के वली तक ने हिंदी को महत्व दिया है। अब यदि 'हिंदुस्तानो लुरात' के विधाता 'उर्दू मुसन्निफ़ों' की जगह 'मुसलिम मुसन्निफ़ों' कर देते हैं तो उनको उन सभी शब्दों को अपनाना पड़ेगा जो हिंदी के मुसलिम कवियों की रचनाओं में भरे पड़े हैं और जो आज भी देश के एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त हैं। निदान मुस- लिम मुसन्निफ़ों की कैद खोटी समझी गई। इसी तरह यदि हिंदू मुसन्निफ़ों की बात कही जाती तो उसमें ऐसे भी हिंदू शायरों की शायरी और कलाम आ जाते जो उर्दू की पाबंदी ही नहीं करते। रही 'मुस्तनद' होने की बात है। उस पर जम कर विचार करना चाहिए और बिहारी भाइयों तथा देशी अक्लमंडों को साफ साफ बता देना चाहिए कि इसका रहस्य क्या है और क्यों उर्दू के 'बली' मौलाना हक 'मुस्तनद' के साथ करसी सीझ रहे हैं, और बिहार की 'हिंदुस्तानी कमेटी' उनके साथ सत साध रही है। बात यह है कि मौलाना हक 'मुस्तनद' का रहस्य जानते हैं और 'हिंदुस्तानी कमेटी' उन्हीं की मनभावती एक हिंदुस्तानी संस्था है। फिर वह सत्त न साधे तो क्या करे! उसका अपना भी तो कोई धर्म है! शायद यही कि औरों के लिये अपने आपको मिटा दे!
'मुस्तनद हिंदी मुसन्निफ़ों' का मंत्र सदा से यही रहा है कि―