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शेख मुल्ला नसरती की यह 'फारसी रविश' और उनका यह 'तात्रः शेर' पुकार पुकार कर गोहार लगा रहे हैं कि वे खुदवखुद पैदा होने नहीं दिए जाते बल्कि जवरदस्ती पैदा किए जा रहे हैं। सो भी सिर्फ इसलिये कि 'दक्खिनी' का दक्खिपनीपन कहीं खड़ा न रह जाय और इसका दप्तर फारसी से अछूता रह जाने के कारण नगण्य हो कहीं नष्ट न हो जाय।

'नसरती' का पता अभी तक बहुतों को नहीं है, पर उर्दू के बावा आदम 'बली' को कौन नहीं जानता? 'सरस्वती' अक्टूबर १९३८, के पाठक उनकी 'हिंदी' से कुछ न कुछ अभिज्ञ हो चुके हैं। उनको इस बात का पूरा पूरा पता हो गया है कि किस प्रकार ईरान और तूगन में प्रसिद्ध होने के लिये 'वली' आगे बढ़ रहे थे और अंत में शाह शादउल्लाह गुलशन की नसीहत से खासे फारसी बन गए। शाह साहब ने उनसे एक रोज बजात खुद फरमाया―

“ई हमः मज़ामीन फ़ारसी कि बेकार उफ़्तादह अन्द दर रेखतः बकार नवर। अज़ तू कि मुहासिबः ख़वाहिद गिरफ्त।”

“यह इतने सारे फ़ारसी से मज़मून जो बेकार पड़े हैं उनको अपने रेखते इस्तमाल कर। कौन तुझसे जायज़ः ( हिसाब ) लेगा।” ( उर्दू, अपरैल सन् १९३७ ई०, पृ० १७९ )

'नसरती' ने अपने आप ही यह प्रयत्न किया कि 'दक्खिनी' हिंदी को 'फ़ारसी की रविश' पर ढाल दिया जाय और 'वली' ने शाह 'गुलशन' के आदेश से फारसी 'मजामीन' को अपनाने की