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कर लखनऊ की तरकीब अख़्तियार कर ली जिसका एकरार किसको नहीं। नस्रवालों ने नस्र की और नज़्मवालों ने नज़्म की दुरुस्ती की। सरकारी स्कूलों में बावजूद 'क़वायद गिलक्रिस्ट' और 'दरिया-ए-लताफ़त' के नई किताब क़वायद उर्दू में नासिख़ के असूल पर लिखवाई गई। अह्ल अख़बार ने अपने अपने मुक़ाम पर इबारत का ढंग दुरुस्त किया। ग़रज़ सब एक ही रंग में डूब गए।" (वही, दोयम पृ॰ ४६३)

अस्तु। अब तो यह कहने की जरूरत न रही कि शेख मुल्ला नसरती से लेकर शेख इमामबख्श 'नासिख़' तक हम मभी उर्दू के मुस्तनद मुमन्निफ़ों को एक ही जहाद में मशगूल पाते हैं। सभी हिंदी शब्दों को अपनी जबान से निकाल फेंकने की पाक कोशिश में हैं जो 'जात' के हिंदू हैं। उनका हाल बकौल खुद मौलाना हक यह है कि—

"उस वक्त़ के किसी हिंदू मुसन्निफ़ की किताब को उठा कर देखिए। वही तर्ज़ तहरीर है और वही असलूब बयान है। इब्तदा में बिस्मिल्लाह लिखता है। हम्द व नात व मन्क़बत से शुरू करता है। शरई इस्तलाहत तो क्या हदीस व नस क़ुरान तक बेतकल्लुफ़ लिख जाता है। इन किताबों के मुताल: से किसी तरह मालूम नहीं हो सकता कि यह किसी मुसलमान की लिखी हुई नहीं।" (उर्दू, वही, जनवरी सन् १९३३ ई॰ पृ॰ १४)

फिर भी आज तक किसी भी हिंदू की जबान 'मुस्तनद' न मानी गई, बल्कि उलटे यह धौंस जमा दी गई कि—

"हिन्दुओं की सोशल हालत उर्दू-ए-मुअल्ला को उनकी भादरी ज़बान नहीं होने देती।"