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है। मुसलमानों के यहाँ आ कर बस जाने तथा इधर उधर देश में फैल जाने से भी इस भाषा के प्रचार में सहायता मिली। यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि इस 'देहलवी' के भीतर 'ब्रजभाषा' की भी गणना कर ली गई है। ब्रजभाषा का प्रचार इतना व्यापक और प्रबल क्यों हो उठा, इसका भी एक ठोस इतिहास है, पर उसपर विचार करने का यह अवसर नहीं। यहाँ पर केवल इतना भर निवेदन कर देना है कि मुसलिम काल में भी इसका प्रचार बराबर इसलिये होता रहा कि एक ओर यह कृष्ण की लीलाभूमि ब्रज की भाषा थी तो दूसरी ओर मुसलमानों के शासन केंद्र आगरा की जबान। फिर इसका प्रचार चारों ओर क्यों न हो जाता? बिहारी लोग भी उसी में काव्यरचना क्यों न करते?

ब्रजभाषा के साथ ही साथ बोलचाल को वह भाषा भी चल रही थी जिसे आज हम आप खड़ी बोली कहते हैं। इस खड़ी बोली के प्रभुत्व में आ जाने का एक रोचक इतिहास है। प्रसंगवश यहाँ थोड़ा इसपर भी विचार कर लेना चाहिए। हमारी दृष्टि में खड़ी बोली का सच्चा नाम 'उर्दुई' होना चाहिए। कारण प्रत्यक्ष हैं। इस बोली में कोई खड़ापन नहीं है बल्कि वह उर्दू- वालों की कटी छँटी भाषा है। उन्हीं की ठेठ अथवा चलती हुई जबान का नाम आज खड़ी बोलो हो गया है, कुछ प्रेमसागरी खड़ी बोली का नहीं।

'उर्दुई' का अर्थ अच्छी तरह ग्रहण करने के लिये कुछ 'उर्दू' शब्द पर भी विचार कर लेना चाहिए। सबसे पहले हमें यह सदा