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पृष्ठ:बीजक.djvu/१३५

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(८४) . बीजक कबीरदास । धंधा बँधा कीन्ह व्यवहारा। कर्म विवर्जित वसै निनाः ॥३॥ षटआश्रमषटदरशनकीन्हा । षटरसवस्तुखोटसवर्चस्व चारि वृक्ष छाशाख बखानै । विद्याअगणितगनै न जानै॥६॥ औरौ आगम करै विचारा। तेहिनहिंसूझै वार न पारा॥६॥ जप तीरथ व्रत पूजे भूता। दान पुण्य औ किये वहूता॥॥ साखी ।। मंदिर तो है नेहको,मति कोइ पैंटै धाइ ॥ | जोकोइपैठे धाइकै, विन शिर सेंतीजाइ ॥ ८॥ अलखनिरंजनलखैनकोई । जेहिकेबँधे बँधासवकोई ॥ १ ॥ जेहिझूठो सो बँधो अयाना । झूठीबातसांचकैमाना ॥२॥ धंधाबँधाकीन्ह व्यवहारा । कर्मविवर्जितवसैनिनारा ॥३॥ | कबीरजी कहैहैं कि, हे जीव! तूतो आपनेको निरंजन मान्यो सो निरंजन तों अळखहै वाको कोईनहीं लखैहै जाके बँधतेकहे मायामें सब कोई बँधे हैं ॥१॥ हे अजानौ ! जौने झूठे सो तुम बँधे हौ सो झूठही है तुम सांच मनोहौ सो न मानौ ॥ २ ॥ धन्धा जो साहबकीसेवा ताको बँधाकहे बांधनवारे तौनेको व्यवहार तुम कीन अर्थात् ब्यवहार मानि कर्मत बर्भित ब्रह्म सबते न्यारही रहै है या परमार्थ तुमलोग कहीहौ औ वाहीमें आरूढ़ होतही साहबको नहीं जानौ ॥ ३ ॥ षटआश्रमषटदरशनकीन्हा । षटरसवस्तुखोटसचीन्हा चारवृक्षछाशाखवखाने । विद्याअगणितगतैनजानै ॥६॥ षटरसनको खोटमानि त्यागन करिकै औ षटआश्रम करिकै षट दर्शन करिकै वही धोखा ब्रह्मही को सिद्धांत मानते भये ॥ ४ ॥ पुनि चारि वेद अवशास्त्र अगणित विद्या वाच्यार्थ करिकै धोखा। ब्रह्मको कहैं ताको तो तुम ग्रहणकियो तात्पर्य वृत्ति ते जो साहबका कहै सो तुम न जानत भये ॥ ५ ॥