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रमैनी । ( १०१ ) वेद पर्दैहै सब देवतनकी बड़ाईकहे स्तुति कैरैहै अथवा अपनीबड़ाई करैहै । कि मैं महापण्डितहीं संशयकी गांठजो परिगई है सो अजहूं नहीं जाइहै वेदांत शास्त्र आदि पटैहै आत्मा सर्वत्र है या कहै पै चैतन्य जो जीवहै ताका मूड़ कमेटिकै पाषाण की मूर्तिहै ताके आगू धेरैहै ।। ३ । ४ ॥ साखी ।। कहकवीर पाखण्डते, बहुतक जीव सताय ।। अनुभवभाव न दर्शई, जियत न आपुलखाय॥५॥ कवीरजी हैं कि यहिपाखण्डते बहुत जीवनको सतावत भये उनको अनुभवको भाव नहीं दरशैहै कि जैसे हममौरैहैं तैसे येऊ हमको मौरेंगे जब भरिजिएहैं तबभर अपनी इच्छानहींकरै हैं जेहिते बचें ॥ ५ ॥ इति इकतीसवीं रमैनी समाप्ती ।। अथ बत्तीसवीं रमैनी । चौपाई। अंध सो दर्पण वेद पुराना दरवी कहा महारस जाना॥१॥ जसखर चन्दनलादेभारा।परिमलबास न जाननँबारा॥२॥ कहकबीरखोजैअसमाना।सोनमिलाजोजायअभिमाना३॥ जैसे आँधरके दर्पण वह आपनो मुख कहादेखै औदरवी जो करछुलीसो पाकके रसको कहानन ॥१॥ औगदहा चन्दनकोलादे चन्दनकी सुबास कहाजौने तैसे गॅवारजे ते बेदपुराणको तात्पयर्थिजे साहब तिनको कहाजनैं जो गरवीपाठहोय तो या अर्थहै अहंकारी लोगमधुर रसको काजानें २ सोकबीरजी कहैं कि आसमान जो निराकार धोखाब्रह्मताको खोजै हैं सोवातो झूठईहै सो पुरुष याको न मिला जाके उपदेशते अहंब्रह्म को अभिमान जाय औं साहब को नानिलेय ॥ ३ ॥ इति बत्तीसवीं रमैनी समाप्ता ।