पृष्ठ:बीजक.djvu/१५८

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( १०८) बीजक कबीरदास । ब्राह्मण क्षत्री वैश्य उपदेशपावै है कहो मुक्तिकेहिकी भई । काहेते वाकतात्पर्य तौ यहहै कि जबसाहब को स्वरूप अरु आफ्नो स्वस्वरूप जानै तै मुक्तिहोइ सो साहेबको स्वरूपऔ आपनो स्वरूपतो जानतई नहीं है मुक्ति कैसे पावै ॥ ३ ॥ और के छुये लेतहौ साचातुमते कहौ कौनई नीचा॥ ४॥ यहगुणगर्व करौ अधिकाई।अतिकेगर्वन होइभलाई॥ ५॥ जासु नाम है गर्व प्रहारी । सोकसगर्वहिसकैसहारी ॥६॥ औरको छुबौहौ तौ गंगाजल सींचौहौ कि पवित्रलैजाय सोकहीं तुमते कौननीचहै ॥ ४ ॥ मलमूत्रादिक तुमहू में भरे हैं औ अपने गुणको गर्ने अधिक तुम करतेहौ सो अतिगर्ब किये भलाई नहीं होइहै काहेते कि ॥५॥ जाको नाम गर्व प्रहारी है सोकैसे गर्वको सहारि सकै वह जो परमपुरुषहै सो गर्ब प्रहारीहै तिहारोगर्व कैसे सहैगो ॥ ६ ॥ साखी ॥ कुल मर्यादा खोइकै, खोजिनि पदनिर्वान ॥ | अंकुर वीज नशाइकै, भये विदेही थान ॥ ७॥ नेकर्मको त्यागकियेहैं तिनको गांठिहूको धर्मगयो आपनीकुलमर्यादा ते । पहिले खोइदियो है औ निर्वानं पदको खोजत भये अंकुर जो है सुरतिबीज जो है शुद्धजीवआत्माबीजनो है साहेब ताको नशायके बिदेहीजाहै ब्रह्म निराकार ताहीके थानभये कहे आपनेको ब्रह्म मानतभये सो जाको अनुभवहै ब्रह्म ताको तौ भूलिही गये बिनाअंकुरपाले कैसे होइगो अर्थात् धोखेहीमें परेरहिं गये वामें कुछनहीं मिले है तामें प्रमाण कबीरजी को ( अंकुर बीज जहां नहीं, नहीं तत्त्वे परकाश । तहानाय का छेउगे, छोड़ झूठी आश ॥ ) अर्थात चेष्टारहित ब्रह्मको खोजतभये सो वाते। कुछ वस्तुंही नहीं है मिलिबोई कहां कैर ॥ ७ ॥ इति पैंतीसवीं रमैनी समाप्ती ।