पृष्ठ:बीजक.djvu/२१६

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( १६६) बीजक कबीरदास । अथ तिहत्तरवीं रमैनी। गुरुमुखचौपाई । चलीजातिदेखोयकनारी । तरगागरिऊपरपनिहारी ॥ १ ॥ चलीजातिवहवाटैवाटा । सोवनहारकेऊपरखाटा ॥२॥ जाड़नमरैसुपेदीसौरी । खसमनचीन्हैघरणिभैौरी ॥ ३॥ साँझसकादियालैवारे। खसमछोंडिसुमिरैलगवारे ॥ ४ ॥ वाहिके सङ्गमें निशिदिनराँची । पिय सों वात कौनहिंसाँची सोवत छाड़िचली पिय अपनाईदुखअवधौंकहौंक्यहिसना साखी ॥ अपनीजाँघ उघारिकै, अपनी कही न जाय ॥ की जानै चित आपना, की मेरोजन गाय ॥७॥ चलीजातिदेखीयकनारी । तरगागरिऊपरपनिहारी ॥१॥ चलीजात वहबाटैबाटा । सोवनहार के ऊपर खाटा ॥२॥ | सुरतिरूपी जोनारी सोई। दूतीताकोहम चलीजातदेखाहैहृदयजोगगरी है सो तरेहै औसुरति उठीसाऊपर सुधासरोवर में जल भरनको गई शीशमें पहुंच १॥ वह सुरति जबचलैहै तब षटचक्र बेधिकै राहराह जायदै काहेतेकि नाभीमें मणिपूरक चकहै तामें शीशदिये नागिनी बैठीहै सोई षटकहे पलँगहै सो ऊपरैहै ताके नीचे सोवनहार जो है आत्मा सोहै। तहते सुरतिउठेहै तहां ज्वाला साथ नागिनी उठावै ताही साथ प्राणजायहै ॥ २ ॥ जाड़नमरैसुपेदी सौरी । खसमनचीन्हैघरणिभैवौरी ॥३॥ सांझसकार दियालैवारै । खसमछोड़ेसुमिरै लगवारै॥४॥ सुपेदी कहे रजाई जोहै यह शरीर सो जाड़नमरै है अर्थात् शीत उष्ण वहीको गैहै सौरीकहै सुपेदीको सुमिरणकारकैजाड़नमैरैहै अर्थात् जबलग देहा