पृष्ठ:बीजक.djvu/३५०

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| ( ३०० ) बीजक कबीरदास । ओस न प्यास मँदिर नाहिं जहँवां। सह स्रौ धेनु दुहावै तहँवाँ३ नितै अमावस नित संक्रांति । नित नित नवग्रह बैठे पांति ४ मैं तोहि पूछौं पण्डित जनाहृिद्या ग्रहण लागु केहि खना५ । काह कबीर यतनौ नहिं जान। कौन शब्द गुरु लागा कान६ अब योगनको कहै हैं। बुझ बुझ पंडित पद निरवानासाँझ परे कहवा वस भाना १ नीच ऊँच पर्वत ठेला नभीतीविन गायन तहँवां उठ गीत हे पंडित ! तुम वह निर्वाणपदको बुझातो जे त्रिकुटीमें ध्यान लगाइकै भानु कहे सूर्य देखाहौं । सो सूर्य सांझपरे कहे जब शरीर छुटिगयो तबकहां बसैहै? ॥ १ ॥ नीचते ऊंचे को कहे कुंडलिनीते गैबगुफामें जब आत्मा जाइहै तौने पर्बतमें न ठेलाहै न भीति है । औ बिना गायन तहवां गति उठै है कहे अनहदकी ध्वनि सुनिपरै है ॥ २ ॥ ओस न प्यास मँदिर नहीं जहँव।सहस्रो धेनु दुहावै तहँवांचे | ओस ने वहां परे है कहे अमृत जो वहां झरे हैं ताको पान करिकैन प्यास है जाइँहै कहे पियास नहीं लगैहै । अर्थात् ओसन पियास नहीं जाइहै नो मानिराखे हैं कि, अमृत पीकै हम अमर नाईंगे सो अमर न होउगे । औ जो गैब गुफा पर्वतमें घरमानि राखैहैं सो वहातेरो मंदिर कहें घर नहीं है अर्थात् वहां तो शून्यही तहां सहस्र दलमें धेनु दुहावै है कहे धेनु जहै गायत्री ताको अर्थ नेहै वहदूध ज्ञान स्वरूप ब्रझ ताके बिचार करैहै आपन को ब्रह्म मात्रै हैं जव शरीर सरिजाई तब गैबगुफै। जरिणाईहै औ फिर शरीर धारणकरै हैं ॥ ३ ॥ नितै अमावस नित संक्रांति।नित नित नव ग्रह वैठे पांति ४॥ | औं तहां नित अमावस रहेहैं चन्द्रमा सूर्यनके ओट हैनाइ सोः अमावसे कहावै है । सो यहांते आना जाइकै ब्रह्मज्योतिमें लीन द्वैजाइहै ताते - नित अमावस रहै है है फिर जब समाधि उतरी तब शंकामें परिगया वही वाको