पृष्ठ:बीजक.djvu/३८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

शब्द । | (३३९) जोपै बीज रूप भगवाना। तौ पण्डित का बूझो आना॥१॥ कइँमन कहां बुद्धि ओंकारारजसत तमगुण तीन प्रकारार | बीज जो हैं रामनाम सो भगवान् जनन मरण छोड़ाइ देवेको तौ हे पंडित तुम आनन जगत् कारण ब्रह्म ईश्वर प्रकृति पुरुष काल शब्द परमाणु इत्यादिक काहे खोजत फिरौ है। यह नामही जगतमुख अर्थ करि जगत्का कारगः ॥ १ ॥ सो रामनामै जो सबको बीन ठहरया नो मनको वुद्धिको प्रणवको कारण कहां रो एते सत रज तम ने गुण हैं तिनक तीनि २ प्रकार हैं जगत् किया है प्रथम मन बुद्धि ओंकार कहाँ रहे कोई नहीं रहे भाव यह है कि प्रथम साहब को सुरति पायकै रामनाम को जगदमुख अर्थ करिकै जीव समष्टि ने व्यष्टि वैकै संसारी भयो है तवहीं ये सब भये हैं ॥ २ ॥ विष अमृत फल फूल अनेका । बहुधा वेद कहै तरबेका ३ | बोई सतोगुणी रजोगुणी तमोगुणी उपासनाने विष अमृत अनेक फल फलत भये कहे नाना दुःख सुख जीव पावत भई के थे देवतन की उपासना करिके उनके छोक जाइकै सुख पाया औ कई विषय आदिक कनिकै दुःख पायो येई वे गुणन में फल फले सो सबके फल स्तुति नहुँदा वेद तरबे, को लिख्यो । “शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्तिा । शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः ॥ इत्यादिक सब ॥ ३ ।। कह कबीरते मैं का जान । को धौं छूटल को अरुइनो सो कबीरजी कहैं कि वेद तो फलस्तुतिमें तारेचे को है हैं कटू साच नहीं हैं ये सब नीव अपनी अपनी उपासना में लेने के हैं कि हम मुक्त है नाइँ से सब उपासना सतोगुण रजोगुण तेबोगुग में तीन गुणमय सो मैं कहाना को बढ़ को छूटहै तुमही विचार कॅरि ले कि हमार उपासना मायाके भीतर है कि माया के बहिरे है अर्थद देद में यह दिखाये कि सबको