पृष्ठ:बीजक.djvu/३९८

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(३९०) बीजक कबीरदास । देहरीलौं वरनारि संगहै आगे संग सहेला । मृतुकथान सँगदियो खटोला फिरि पुनि हंस अकेला॥३॥ जारे देह भसम वैजाई गाड़े माटी खाई ।। काचे कुंभ उदक जो भरिया तन कै इहै बड़ाई ॥ ४ ॥ राम न रमसि मोहमें माते परयो कालवश कूवा । कह कबीर नर आपु बँधायो ज्यों नलिनीश्रम लूवः ॥ | फिरडु का फूले फूले फूले। जो दश मास अधों सुख झूले सोदिन काहेक भूले॥१॥ औरे औरे मतनमें लगिकै कहा फूले फूले फिरौहौ कि हमही मालिक हैं। हमहीं मुक्त दश महीना अधोमुख गर्भ में झूलतरहे तहां कह्यो कि हे साहब ! मैं तिहार भजन कराँगो मोको छोड़ावो । सो दिन काहेको भूलिगये अब काहे भजन नहीं कहौ निकसतही कहां कहां करनलग्यो । जो कहो जब हम गर्भमें रहे तब हमको साहबै दयालुता करिकै सुरति लगायों अब काहे दयालुता करिकै सुरवि नहीं लगावै हैं सो हम कहा, हमको साहबई भुलाइ दियो । अरेमूढ़ साहबतो गोहावत जाइहै सब शास्त्र वेदके तात्पर्य करिकै बीजकमें कि जो मोको जानि भजनकरु तो मैं तेरो उद्धार कराँगो सो गर्भबासमें जो हैं भजन करिबेको कौल कियो सो भजन न कियो भुलायदियों तामें प्रमाण कबीरजीके मुक्तिीला ग्रन्थ को ॥ * गर्भवासमें रह्यो मैं भनिहीं तोहीं । निशि दिन सुमिरौं नाम कष्टले काही मोहीं ॥ यतना कियो करार काढ़ि गुरु बाहर कीना । भूलिगयो निज नाम भयो माया अधीना । सो साहब कौनं दोषहै तुहीं कौलते चूक गयो साहबको भजन न कियो ॥ १ ॥ ज्यों माखी स्वादै लहि विहरै शोचि शोचि धनकीन्हा । त्यहीं पीछे ले लेहुकर भूत रहनि कछु दीन्हा॥२॥