पृष्ठ:बीजक.djvu/४७

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                                (४४)
                     रमैनी । 

साक्षी ॥ धन्य धन्य तरण तरण, जिन परखा संसार ॥ वंदी छोरकबीरसों, परगटगुरू विचार ॥ २४ ॥ रमैनी ॥ शब्द संधि ले ज्ञानी मूढ ॥ देह करमजगत आरूढ़ ॥ नसे धिलै सपना होय ॥ झांई शून्य सुषोपति सौय ॥ ज्ञान प्रका शक साक्षी संधि ॥ तुरियातीत अभास अबधि ॥ झांई ले वरते वर्तमान ॥ सो जो तहां परे पहिचान । काल अस्थिति के भासनशाए । परख प्रकाश लक्ष बिलगाए ॥ बिलगैलक्ष अपनी जान ॥ आपु अपन पौ भेद न आन ॥ साक्षी ॥ आप अपन पौ भेद बिनु, उलटिपलाट अरझाय ॥ गुरु बि न मिटे न दुगडुगी, अनवनियतमनशाय ॥ २५ ॥ रमैनी ॥ निज प्रकाश झांई जो जान । मह संधि माकाश बखान ॥ सो ईजी ल बुद्धि विशेष॥प्रकाशक तुरियातीत अरुशेष॥ विविध्व भावना बुधि अँनुरूप ॥ विद्यामाया सोई स्वरूप ॥ सो संकल्प बसे जिव आप ॥ ॐरी अविद्या बहु संताप ।। त्री गुण पांच तत्व विस्तार ॥ तीन लोक तेहि के संझार ॥ अदबु दुकला बरनि ना जाई ॥ उपजे 'खैपे तेहिमाहि समाई ॥ निज झांई जो जानी जाए ॥ सोच मोह संदेह नशाए । अन जाने को एही रीति ॥ नाना भाँति करे परतीति ॥ सकल जगत जाल अरुझान ॥ बिरला और कियो अनुमान ॥ कत ब्रह्म भजे दुःख जाए ॥ कोई आपै आप कहाए ॥ पूरण सम्भव दूसरनाहिं ॥ बंधन मोक्ष न एको अहिं ॥ फल आश्रित स्वर्गहिके भोग ॥ कर्म सुकर्म लहै संयोग ॥ करम हीन वीना भगवान सूत लियो पहिचान ॥ भांतिन भांतिन

१२५ अंतर को जो शब्द ॥ १२६ दाव, स्वरूप ॥ १२७ फरि औता ॥ १२८ अनुसार मुताबिक ॥ १२९ स्फुण हुआ ।।१३० नाना रंगका आश्चर्यमय ॥ १३१ नाश होता है ॥ १३२ भेष ॥ १३३ भला ॥१३४ बुरा ॥