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विप्रमतीसी ।। (४४५) वैठेते घर शाहु कहावें । भितर भेद मन मुसहि लगावें॥१९॥ ऐसीावाध सुर विप्र भनीजै । नामलेत पंचासन दीजै॥२०॥ बुड़िगयेनहिंआपसँभाराऊचनीचकहुकोहिजोहारा॥२१॥ ऊँचनीच है मध्यमवानी । एकै पवन एकहै पानी ॥२२॥ एकै मटिया एक कुम्हारा।एक सवनको सिरजनहारा॥२३॥ एकै चाक वहुचित्र बनायानादविन्दुके वीच समाया॥२४॥ सो ऊपरते ऐसो ध्यान लगायकै घरमें बैठे बड़े साधुकहावें औ अन्तःकरण में मनते पराई द्रव्य मूसैको भेद लगाये हैं ॥ १९ ॥ सोयहि रीति विप्रन सुरनकी विधिकहै हैं नामको लेइहैं कहे मन्त्रजपै हैं औ पंचासनकहे पंच आसन देइहै अर्थात् पंचांगेपासना करै हैं ॥ २० ॥ सो आपै मायाकी धारमें बुड़िये न सँभारत भये तो ऊंचनीच कहे पांच देवतनमें काको जोहारयो कहे काकेभये अर्थात् काहूके न भये ॥ २१ ॥ सो बिप्रनको उत्तम मध्यम नीच बाणी कारकै हाइहैं बास्तव तो सबके शरीरनमें एकै पानी है एकै पवन है ॥ २२ ॥ औ एकै सुबकी माटीहै कहे सब पांचभौतिक हैं औ सबके सिरजनहार कुम्हार मन ऐकैहैं। ॥ २३ ॥ एकचाक जो जगहै तामें बहुत विधिके चित्र बनावत भयो मन औ नाद बिन्दुके बीच में आपै समातभयो ॥ २४ ॥ व्यापी एक सकलमें ज्योतीनामधेरकाकहियेमोती॥२६॥ राक्षसकरणी देवकहावै । दाद् करै भवपार न पावै ॥२६॥ हंस देह तजिन्यारा होई ताकी जाति कहै धौं कोई ॥२७॥ श्यामसुपेकि,रातापियराअवरणवरणकितीतासियरा२८ सो एक ज्योति जो आत्मा सो सबमें व्यापि रही है ब्राह्मण नामधरयो से ताहीते मोतीकही अर्थात् न कही बिना ब्रह्म जाने ब्राह्मण नहीं कहावै है ॥ २५॥ औ करणी तौ राक्षसकी नाई करे हैं औ जगत में ब्राह्मण देवता भूसुर कहावै हैं