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(४४६) । बीजक कबीरदास । | औं वादविवाद नानाप्रकारके करैहैं परंतु संसार समुदको पारनहीं पावै॥२६॥ सो हंसजो जीव है सो देहको त्यागिकै न्यारो हैजाइ है ताकी जाति कोई कहै। तो वह कौन बर्णहै ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ॥ २७ ॥ औ वह आत्मा कि, श्याम है कि सुपेद है कि लालहै किपियरहै कि अवर्ण है कि वर्ष में है कि गर्म है। कि शीतल है ॥ २८ ॥ हिन्दू तुरुक कि बूढ़ावारा।नारिपुरुष मिलिकरहु विचारा२९ काहिये काहि कहा नहिं मानादासकबीर सोई पहिचाना३० साखी । बहिआ है वहि जातुहै, करगह ऐचहु ठौर। समुझाये ससुझै नहीं, दे धक्का दुइ और ॥ ३१॥ | पुनि हिन्दू है कि, तुरुकहै कि बूढ़ा है कि लडिकाहै या नारि पुरुष मिलिंकै सबजने बिचारकरो ॥ २९ ॥ सो या बात कासों कहीं कोई नहीं मानैहै सबके रक्षक जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्र तिनको दासकबीर के हैं कि, मैं सोई पहिचान्यों है कि उनको अंशजीव है वे स्वामी हैं ॥ ३० ॥ या जीव औरे २ में लगकै बहत आयो है औ बहा जाइ है सो करगहि कहे एकवेउपदेशकरिके और ऐंची हौं कि साहब में लागु समुझावत आयो हैं औ समुझाबतहीं जो समुझाये न समुझे तो लाचार द्वैकै दुइ धक्का और महूं दैदेउँ कि अहा जाय ॥ ३१ ॥ इति विप्रमतीसी सम्पूर्णा ।।