पृष्ठ:बीजक.djvu/५०

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                  रमैनी ।
                                    (४७)

बिन नहिं पावे रैती ॥ अक्षर भए अनेक उपाय ॥ अक्षर सुनि २ शून्य समाय ॥ अक्षर से भव आवै जाय ॥ अक्षर काल सबनको खाय ॥ अक्षर सबका भाषे लेखा ॥ अक्षर उत्पति प्रलय विशेखा ॥ अक्षरकी पावै सहिदैनी ॥ कहैं कबीर तब उतरे प्रानी ॥ साक्षी ॥ परखावे गुरुकृपा करि, अक्षर की सहिदानि ॥ निज वल उदथ विचारते, तब होवे भ्रम हानि ॥ २८ ॥ रमैनी ॥ बावन के बहु बने तरंग ॥ ताते भासत नाना रंग ॥ उपजे औ पालै अनुसरै ॥ बावन अक्षर आखिर करे ॥ राम कृष्ण दोउ लहर अपार ॥ जेहिपद् गहि नर उतरे पार ॥ महादेव लोमश नहिं बचें ॥ अक्षर त्रास सबै मुनि नाचे ॥ ब्रह्मा विष्णु नाचे अधिकाई ॥ जाको धर्म जगत सब गाई ॥ नाचे गण गंधर्व मुनि देवा ॥ नाचे सनकादिक बहु भेवा ॥ अक्षर त्रस सवन को होई ॥ साधक सिद्ध बच नहिं कोई ॥ अक्षर त्रास लखे नहिं कोई ॥ आदि भूल बंछे सब लोई॥ अक्षर सागर अक्षर नाव ॥ करणधार अक्षर समुदाव ॥ अक्षर सबका भेद बखान । बिन अक्षर नहिं अक्षर जान ॥ अक्षर असते फंदा परे॥ अक्षर लखे ते फंदा टरे॥ गुरु शिष अक्षर लखलखावे ॥ चैराशी फंदा मुक्तावै ॥ विनु गुरु अक्षर कौन छोडावे ॥ अक्षर जाल ते कौन बचावै ॥ संचित क्रिया उदय जब होय ॥ मानुष जन्म पावे तब सोय ॥ गुरुपारख बल उदय विचार ॥ परख लेहु जगत गुरुमुख सार ॥ अस्ति हंसप्रकाश अपार॥

 १६४ प्रवृत्ति ॥ १६५ चिह्न, पारख, पहिचान, ॥ १६६ भय ॥ १६७ जन्मांतरोंमें संचित किया हुआ कर्म ॥