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कहरा। (४७९) कहै कबीर सुनोहो सन्तौ ज्ञानहीन मति हीनाहो । यक यक दिन यह गति सवही की कहा रावकादीनाहो४॥ ऐसी देह निरानप है कहे अपनी नहीं है और सब अर्थ प्रगटई है श्री कबीरजी कहैहैं कि जे मतिते हीन मूर्ख परम पुरुष श्री रामचन्द्रके ज्ञानते हीन रहैं तिनके शरीरकी दशा ऐसे एक दिन सबकी है चाहै रंक होइ चाहै राउ होइहै ।। ४ ।। इति नवां कहरा समाप्त । अथ दशव कहरा॥ १० ॥ | हौं सवहिनमें हौं नाहीं मोहिं विलग विलग विलगाई हो । | ओढ़न मेरे एक पिछौरा लोग वोलाहिं यकताई हो ॥ १ ॥ | एक निरंतर अंतर नाहीं ज्यों घट जल शशि झाईहो । | यक समान कोई समुझत नाहीं जरा मरण भ्रम जाईहो॥२ रौन दिवस मैं तहँवो नाहीं नारि पुरुष समताई हो । नामैं वालक नामै बुढो नामोरे चेलिकाई हो ॥३॥ तिरविधि रहौं सबनमें वरतों नाम मोर रम राईहो । पठये न जाउँ आने नहिं आऊँ सहज रहौं दुनिआई हो । जोलहा तान बान नाहं जानै फाट विनै दश ठाईहो । गुरुप्रताब जिन जैसो भाष्यो जिन विरले सुधिपाईहो॥५॥ अनंत कोटि मन हीरा बेध्यो फिटकी मोल न आईहो । सुर नर मुनि वाके खोज परे हैं किछु किछु कविर न पाईहो६ | हौं सवहिनमें हौं नाहीं मोहिं विलग विलग विलगाईहो । ओढ़न मेंरे एक पिछौरा लोग बोलहिं यकताई हो ॥ १॥