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पृष्ठ:बीजक.djvu/५४६

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( (५०२) बीजक कबीरदास । छिलकत थोथे प्रेमस, धरि पिचकारी गात ।। करि लीनो बश आपने, फिरि फिर चितवत जात९।। ज्ञान गाड़ ले रोपिया, त्रिगुण लियो है हाथ ।। शिव सन ब्रह्मा लीनिया, और लिये सब साथ ॥१०॥ एक ओर सुर मुनि खड़े, एक अकेली आप ।। | दृष्टि परे छोड़े नहीं, करि लीनो यक छाप ।।१३।। जेते थे ते ते लियो, घूघुट माह समोय । कज्जल वाके रेखहै, अग गया नहिं कोय ॥१२॥ इंद्र कृष्ण द्वारे खड़े, लोचन दोउ ललचाय । कह कबीर ते ऊबरे, जाहि न मोह समाय ॥१३॥ खेलति माया मोहनी, जेर कियो संसार ।। कटि कहेरि गजगामिनी, संशय कियो शृंगार ॥१॥ रचै रँगकी चूनरी, सुन्दरि पहिरै आय ।। शोभा अद्भुत रूपकी, महिमा वरणि नजाय ॥२॥ जौन माया सब संसार को जेर कियो है सो मोहिनी माया चाचरि खेलै है । केहरि जो है काल सब को खाइलेनवारो सो वाकी कटिह कहे मध्यभाग है । मध्य में बैठिकै अधो ऊर्ध्व को खाय है । औ मन गज है तेही कारकै चले है । औ संशय रूप शृङ्गार किये अर्थात् जहैं बहुत संशय होइँहै त माया बहुत शोभित होइ है ॥ १ ॥ नारी लोग रचेकहे जो पीउ को रुचैहै सो चूनरी पहिरे हैं औ माया नाना विषय जो जीवन को नीक लगै ताकी चूनरी पहिरें है अद्भुत शोभा स्त्रियनहूं की होइहै यहै मायौकी अद्भुत शोभा है ॥ २ ॥ चन्द्र बदनि मृग लोचनी, बिन्दुक दियो उघालि ।। | यती सती सव मोहिया, गज गति बाकी चालि॥३॥