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पृष्ठ:बीजक.djvu/५६

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(५)                     आदिमंगल। .

थदंशाशेनगोलोकः वैकुण्ठस्थःप्रतिष्ठितः ॥ २ ॥” इति वासिष्ठसहितायाम् ॥ " देवानांपूरयोध्यातस्यांहिरण्मयः कोशः स्वर्गलोकाज्योतिषावृतः इतिश्रुतेः ।। सो इहां कहैहैं कि प्रथमतौ समर्थ साहब वह लोक में आपही आपॅहै दूजा कोई नहीं रह्यो दूना जो रह्यो सौ तौ साहबके लोकको प्रकाश चैतन्याकाशमें रह्यो। सो कबीरजीते धर्मदास कहे हैं कि हे गुरूजी मैं तुमसे पूछौंहों कि साहबके लोकको प्रकाश चैतन्याकाशमें जो समष्टि जीव वह दूजारह्यो सो केहिविधिते उपन्यो संसारी भयो काहेते कि साहबतो दयालु जीवों को संसारते छुड़ाइदैइहैं जीवोंको संसारी नहीं करिहैं औ वह समष्टि जीवके तब मनादिक नहीं रहे शुद्धरह्योहै उपजिबे की सामर्थ्य नहीं रहींहै औ साहब सामथ्थे दैकै जीवको संसारी करबही नकरेंगे सो दूसरा जो है समष्टिजीव सो उपजिंकै व्यष्टिरूप सेसारी केहि बिधिते भयो औ जीवके अपने ते उपनिबे की सामर्थ्य नहींरही तामेंप्रमाण "कर्तृत्वकरणत्वंचसुभावश्चेतनाधृतिः ॥ तत्प्रसादादिमसतिनसं तियदुपेक्षयाइतिपयंगश्रुतेः १ ॥

दोहा-तबसतगुरुमुखबोलिया, सुकृत सुनोसुजान ॥

आदि अन्तकी पारचै, तोसोंकहीं बखान ॥२॥

गुरु साहबको कहै हैं काहेते सबते श्रेष्ठहैं औ जे यथार्थ उपदेश करै हैं। तिनको सतगुरु कहे हैं औ जे अयथार्थ उपदेश कैरै हैं तिनको गुरुवालोग कहेहैं। सो यह बीजक ग्रन्थकी औ अनुभवातीत प्रदर्शनी यहटीका की यह सैली है । तब सतगुरु ने कबीरजी हैं ते मुखते बोले कि हेमुनान हेसुकृत जीव समष्टिते व्यष्टि जेहि प्रकार भये हैं सो सुनो मैं तुमसों आदि अन्तकी परचै कहौ हैं। जेहिते तुम जानिलेउ ॥ २ ॥
                        उत्पत्ति। 

दोहा-प्रथम सुरति समरथ कियो, घटमें सहज उचार ॥ ताते जामन दीनिया, सातकरी बिस्तार ॥३॥