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पृष्ठ:बीजक.djvu/६३४

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(५९६) बीजक कबीरदास । जो कोउ कहै हम मनको मारा जाके रूप न रेखा है छिन छिनमें केतनौ सँग ल्यावै जे सपनेहु नहिं देखा ।। रासातल यकईश ब्रह्मण्डा सब पर अदल चलावै । षट रसमें भोगी मन राजा सो कैसे कै पावै । सबके ऊपर नाम निरक्षर तहँ लै मनको राखे । तब मनकी गति जानि परै यह सत्य कबिर मुख भाखै ।। १८१।। . देश विदेशन हैं| फिरा, मनहीं भरा सुकाल ।। जाको ढूंढ़त हों फिरों, ताको परा दुकाल ॥१८३।। देशकहे संसार बिदेशकहे ब्रह्म तौने में फिराहै सो ये भूनों मायाको लुकालभराहै अर्थात् वह ब्रह्म मनहीं को अनुभवहै औ संसार मनहीं को कल्पनाहै जौन बस्तु को मैं ढूंढ़त फिरौ हौं जो मन बचनके परे है साको दुकालपरयो वा न ब्रह्ममें है न संसार में है ॥ १८२ ॥ कलिखोटा जग आंधरा, शब्द न मानै कोइ ।। जाहि कहाँ हित आपना, सो उठि वैरी होइ ॥३८॥ जगत् ते धरोहै ज्ञानदृष्टि याके नहीं है कुछ समुझे नहीं है तौने में या कलिखोटा प्राप्त भयो सो जाको शब्द जो राम नाम मैं बताऊँहौं सोई बैरी होइहै कहे शास्त्रार्थ करै है मानै नहीं है ।। १८३ । । मसि कागद तो छुवों नहिं, कलम गहो नहिं हाथ ।।। चारिहु युग माहात्म्य जेहि, कारकै जनायोःनाथ१८४ गुरुमुख ॥ चारिउ युग में है माहात्म्य जिनको ऐसे ने नाथ रघुनाथ तिनको कबीरजी सबको जनायो ने कलमगही न कागद लिया ने मसि लिये। मुखहीते कह्यो ये तो सरल करिकै कह्यो कि जामें एक साधन न करनपरै सो साहब कहै हैं कि जो मोको जानिलेइ तौ संसारते तरिजाय जो कह कबीर जी मुखही तें कह्यो है ग्रन्थकैसे भये हैं तौ कबीर जी कहते गये हैं। शुष्यलोग लिखते गये हैं ॥ १८४ ॥