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पृष्ठ:बीजक.djvu/६४

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                 आदिमंगल।
                                   (१३)
प्रकटे जे चारोवेद ते ब्रह्मा के चारिउ मुखते निकसतभये । तौने वेदनको अक्षर जो समष्टि जीव है सो जगतमुख दृष्टि कियो अर्थात् जगत्मुख अर्थ देख्यो तब द्वारे के वह मायाते सबलित जो है ब्रह्म जाको आगे बाप कहि आयें हैं जो शुद्धते अशुद्ध जीवन को कैकै उत्पन्न कैरै है ' सो दश द्वारेते कहे दशौ इन्द्रिनते कढ़त भयो । तब इन्द्रिन के विषय लँकै इन्द्री वैकै चिदंश ढुकै चिदचिदात्मक जगत् होत भयो अर्थात् वेदनको अर्थ जब जगत्मुख देख्यो तब वह जीव चिदचिदात्मक जगत्को धोखा ब्रह्मही देखत भयो । सो जगत् तौ साहब के लोक प्रकाश को शरीर है, तौने को वेदार्थ करिकै धोखा ब्रह्मही देखत भयो यही धोखा है तात्पर्य कैकै वेद जो साहब को कहै है ताको न जानत भये । लघु रकार की अकार ते नारायण भये तिनते ब्रह्मा की उत्पत्ति भई सो कहि आये । अरु वहि ते जेतो जगत् के उत्पन्न को प्रयोजन रह्यो सो कहि गये । अब फेरि सिंहावलोकन करिकै पंचम ब्रह्म की प्राकट्य हैहैं ॥ १४॥
      दोहा-तेहिते ज्योति निरंजन, प्रकटे रूप निधान ॥

| काल अपरवल वीरभा, तीन लोक परधान॥१६॥ |

तेहिते कहे वही रामनामते व्यञ्जन मकारको जो अर्थकरि आये हैं तामै जो अकार रही है ताको महाविष्णु अर्थ करतभये । जे विरजा के पार पर बैकुण्ठ में रहे हैं । जिनके अंशते रमा वैकुण्ठवासी भगवान् भये हैं । सो अंजन जो अविद्या माया ताते वे राहत हैं काहेते कि, अविद्या माया विरजाके यही पार भर बनतेहै । पै पुराणादिक में सो व्यञ्जन मकार की अकारको मंहाविष्णु अर्थ करत भये, औ वह अकार शत्रुघ्बाचक है सो अर्थ न समुझत भये । ते अकाररूप महाविष्णु ते महाकाल अपरबल बीरभा कहे जेहिते प्रबल बार कोई नहीं है अथवा अकार जे विष्णु तेई हैं परमबल निनके सो तीनलोक में प्रधान होत भयो । इहांपाँचों ब्रह्मकी प्राकट्य द्वैगई ॥ १५ ॥

      दोहा-ताते तीनों देवभे, ब्रह्मा विष्णु महेश ॥
       चारि खानि तिन सिरजिया,माथाके उपदेश॥१६॥