पृष्ठ:बीजक.djvu/६४७

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साखी । ( ६०९ } ताल मृदङ्ग बजाईंकै मङ्गल गाइये । साधु सङ्ग लै आरति तबहिं उतारिये ॥ आरति करि पुनि नरियल तबहिं मोराइये ।। पुरुषको भोग लगाई सखा मिलि खाइये ।। युग युग क्षुधा बुझाइ तौ पाइ अघाइये । परम अनादित होइ त गुरुहि मनाइये ॥ कहै कबीर सत भाय सो लोक सिधाइये । इहांपुजा के मंत्रनहीं लिख्यो सो पुरुष सूक्तनके मंत्र हैं ताते नहीं लिख्यो है

  • दशौ दिशा कर मेटौ धोखा । सो कड़हार बैठही चोखा ।

दशौ दिशा कर लेखा जानै। सो कड़हार आरती ठाने ।। दशइंद्रीकै पारिख पावै । सो कड़हार आरती गावै । जो नहिं जानै एतिक सानै। चौका युक्ति करै क्यहि कानै।। हिंर्स कारण करहिं गुरुआई । बिगरै ज्ञान जो पंथ पराई । पद साखी अरु ग्रंथ दृढ़ावै। बिन परखनउत्तम घर पावै ॥ शव्द साखीसिखिपारस करहीं।होय भूत पुनि नरकहि परहीं। विना भेद कड़हार कहावै । आगिल जन्म श्वानको पावै ।। पद साखी नहिं करहि बिचारा । भूकि२जस मरै सियारा है पद साखी है भेद हमारा । जो बूझै सो उतरहि पारा ॥ जबलग पूरी गुरू न पावै।तब लग भवजल फिरिफिरि आवै। पूरा गुरु जो होय लखावै । शब्द निरखि परगट दिखलावें। एक बार जिय परचौ पावै। भव जल तरै बार नहिं लावै ।। साखी-शब्द भेद जो नानहीं, सो पूरा कड़हार ॥ | कह कबीर धूमक्ष है, सोह शब्दहि पार ॥ २१८ ॥ आस्ति कहो तो कोइ न पतीजै,बिना अस्ति को सिद्ध कहै कबीर सुनो हो सन्तौ, हीरै हीरा विद्ध ॥ २१९ ॥