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पृष्ठ:बीजक.djvu/६६३

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साखी। ( ६२९ ) यकसाधे सवसाधिया, सवसाधे यकजाय ॥ | उलटजो सींच मूलको, फूलै फलें अघाय ॥२७॥ एक जो साहबकी भक्ति है ताके साधे सब सधिजाये। अर्थात् लोक परलोक बनिजायहै और सब साधेते अर्थात् नानामतनमें लागेते एक जो साहबकी भक्ति सो जातरहै है औ ऊपरते वृक्षके जळमें डारिराखै तौ पत्ता फूलफल सरिजाय औ जो वृक्ष को मूलते सींचै तौ फूलैफलै अधायकै ऐसे सबके मूल साहब हैं। तिनकी भक्ति कीन्हे सब फूलैफलै है दूसरेकी चाह नहीं रहनायहै दूसरे की उपासना में संसार नहीं छूटै है ॥ २६७ ॥ जेहि वन सिंह न संचरै, पक्षी नहिं उड़िजाय ॥ सोबन कविरन हीठिया, शून्यसमाधि लगाय ॥२६८॥ जेहि बाणी रूप बनमें कहे जेहि बाणीते ब्रह्म ज्ञानौ कथै है तैौनी बाण में सिंहजे हैं शुद्धजीव साहबके जाननवरे ते नहीं संचरै हैं कहे नहीं जाय औं पक्षी जे हैं नानामतवारे नानाशाखवारे ते आपने अपने पक्षकार ब्रह्मको बिचारकैरै हैं उड़े हैं पार कोई नहीं पावै हैं सो तौने बनको कबीर जे हैं जीव सोही ठिया कहें हठत भयो वही शून्य समाधि लगायकै साहुबकी प्राप्ति न भई तामें प्रमाण चौरासी अङ्गकी साखी ॥ * शून्य महलमें सुन्दरी, रहीं अकेले सोइ । पीउ मिल्यो ना सुखभयो, चली निराशा रोइ ?' ॥ २६८ ॥ बोली एकअमोलहै, जो कोइ बोलै जानि ॥ हिये तराजू तालिक, तब सुख बाहर आनि॥२६९ ॥ सो वे शून्य समाधि लगायकै शून्य ब्रह्ममें जायहैं तिनको कहि आये अब ज्ञान कारकै जे ब्रह्ममें लीनद्वै हैं तिनका कहै हैं कि वह बोली सोहं अमेल ताको जो कोई नानिकै हियेके तराजूमें तौलिकै मुखके बाहर लैआइकै बोले कहे श्वास श्वासमें यही जंपे जातमें सो आवत में हृदय तराजुमें येही तैले कि सो पार्षदरूप हंस साहब को है ॥ २६९ ॥ ४०