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(६२६) बीजक कबीरदास । वोहूतौवैसहिभया, तू मतिहोइ अयान ॥ तूगुणवंता वे निरगुणी, मतिएकैमें सान ॥ २७० ॥ श्रीकबीरजी कहै हैं कि योगी तै समाधि करिकै शून्यमें गये औ वहू जे हैं। वह ज्ञानी सहजसमाधिवारे तौनौ ज्ञानकारिकै वैसेभये कहे वही शून्यमें समाय रह्यो तू मति अयान होय कहे अज्ञानी होइ तूत गुणवंता कहे दिव्यगुण सहित जे साहब हैं तिनको है दिव्यगुण तेरेहूहै निर्गुण जो धोखा ब्रह्म तामें तू काहे सानै है तू मतिसान साँचांद्वैकै तू असच काहे होइहै ॥ २७० ॥ | साधू होना चहहुजो, पक्काके सँगखेल ॥ कच्चासरसों पेरिकै, खरी भया नहिं तेल ॥ २७१॥ जो तुम साधु होना चाहो तौ पके जे साहब के जाननवारे तिनके संग खेळ कहे सत्संगकरौ जो तुम और नाना देवता नाना मतनमें लगौगे तो : तुम्हारो न लोकै बनैगे। न परलोकै बनेगो जैसे कच्चे सरसों को पेरनो न तेलै भयो न खरी भई ॥ २७१ ॥ सिकेरीखालरी, मेढ़ा ओढ़ जाय ॥ बाणीते पहिचानिया, शब्दहि देत बताय॥ २७२॥ सिंहकी खालकहे शुद्ध जीवनको वेष गुरुवालोग संसार में बनाये कण्ठी छापा टोपी दीन्हें हैं सबलोग जानैं कि बड़े साधुहैं जैसे सिंहकी खालरी मेढ़ाको बढ़ायदेइ अर्थात् मढ़िदेइ तो सब सिंहकी नाई जाने हैं परंतु जब भ्ाँ भ्यॊ बोलन लग्यो तब बाणी ते जानि परेउ कि सिंह नहीं है मेढ़ाहै ऐसे जब गुरुवनको सद् सङ्गकान्ह्यो तब बाणीते जानिपरे कि ये साहबको नहीं जानै हैं बेषैभरि बनाये हैं इनते संसार न छूटेगो तामें प्रमाण चौरासी अङ्गकी साखी ।। * स्वामी भया तो का भया, जान्या नहीं बिबेक ॥ छापा तिलक बनायकै, दग्धै जन्म अनेक ॥ १ ॥ जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम ॥ मन कीचे नाचे वृथा, साँचे राचे राम' ॥ २७२ ॥