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पृष्ठ:बीजक.djvu/६७५

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साखी। (६३९) लधुताई सबते भली, लघुताइहिसबहोई॥ जसद्वितियाकोचन्द्रमा, शीशनवै सवकोई॥३१६॥ लघुताई सबते भली है लघुताइन ते सब होइहै सर्वत्र साहब को देखें आपनेको दासमानै तौ वाकी प्रीति साहबमें बढ़ते जाय है औ सब माथनावै हैं तामें प्रमाण कबीरजीको । “लघुताते प्रभुता मिलै, प्रभुताते प्रभु दूरि ॥ चींटीलै शक्करचली, हाथी के शिरधूरि ॥ ३१६ ।। मरतेमरते जगमुवा, मरण न जानै कोइ ॥ ऐसा है के नामुवाजो, बरि न मरना होइ ॥३१७॥ | मरते मरते सब जग मराजायँहै मरण कोई नहीं जानै है ऐसा कै कोई न मुवा जाते फेरि मरण न होय अर्थात् इंदिनते मन ते शरीरते भिन्न बैंकै साहबमें न लगे जाते पुनि जनन मरण नहीं होय ॥ ३१७ ॥ वस्तुअहै गाहकनहीं, वस्तु सो गरुवामोल ॥ बिनादामको मानवा, फिरै सो डामाडोल ॥ ३१८॥ वह गुरुवा मोलको जो साहबहै सर्वत्र पूर्ण है परंतु वाको गाहक कोई नहीं मिले है औ बिना दामको कहे बिना मोलको यह जीव साहबके ज्ञान बिना डामाडोलमें फिरै है अर्थात् जैसे बाजार में गयो औ सत्र साज उहां बनी है औ हाथमें दाम नहीं है तौ डामाडोल फिरै है है नहीं सकैंहै तैसे साहब सर्वत्र पूर्ण हैं परंतु सतगुरुको उपदेश रूप दाम नहीं है डामाडोल फिरै है॥३१८॥ सिंह अकेला वनरमै, पलकपलककैदौर।। जैसा बनहै आपना, तैसा बनहै और ॥३१९॥ बन जो है शरीर तामें सिंह जो है जीव सो अकेला रमै है औ पलक पलकमें दौरकरिकै गुरुवनस पूछै है सो असनहीं बिचौरै है कि जैसा बन कहे शरीर मेरोहै तैसे औरहूको है जैसे मोको अज्ञानहै तैसे इनहूँको अज्ञानहै येई नहीं संसारते छूटे हमको कैसे छुड़ावेंगे ॥ ३१९ ॥