पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१०३

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TAMARPATRAKARMAHARA v- १०४ वीजक मूल ___ शब्द ॥ ८२॥ तुम यहि विधि समुझा लोई । गोरी मुख । मंदिर बाजै ।। एक सगुण पट चक्रहिं वेधे । विना वृपभ कोल्हू मात्रै ॥ ब्रह्महिं पकरि अगिनमा होमै । मच्छ गगन चढ़ि गाजा ।। नित अमावस नित ग्रहन होई । राहु ग्रसे नित दीजै ॥ सुरभी भक्षण करत वेद मुख । घन वर्से तन छीजै ॥ त्रिकुंटी है कुंडल मव्ये मंदिर वाजै । औघट अंमर छीजै ॥ पहमिका पनियां अंमर भरिया । ई अचरज कोई झै । कहहिं कवीर सुनोहो संतो। योगिन सिद्धि पियारी ॥ सदा रहे सुख संजम अपने । वसुधा श्रादि कुमारि ॥ २२॥ शब्द ॥ ८३ ॥ __ भूला वे अहमक नादाना । जिन्ह हरदम रामहिं ना जाना ।। वस्वस प्रानि के गाय पछारिन। गराकाटि जीव आपु लिया । जीयत जी मुरदा । करि डारे । तिसको कहत हलाल हुआँ || जाहि ।