पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/११७

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११८ वीजक मूल भरो ॥ कैसी तेरी सेवा पूजा कैसो तेरो ध्यान । उपर उजल देखो वग अनुमान ॥ भाव तो भुजंग । देखो अति विविचारी । सुरति सचान तेरी मति । में तो मंजारी ।। अतिरे विरोधी देखो अतिरे सयाना। छौ दर्शन देखो भेप लपटाना ॥ कहहिं कबीर सुनो। नर बंदा । डाइनि डिंभ सकल जग खंदा ॥१०॥ शब्द ।। १०५॥ ये भ्रम भूत सकल जग खाया। जिन जिन । पूजा तिन जहँडाया ।। अंड न पिंड न प्राण न देही । काटि २ जिव कौतुक देही ।। वकरी मुरगी। कीन्हेउछेवा । अागल जन्म उन्ह ौसर लेवा ॥ कहहिं कबीर सुनो नर लोई । भुतवा के पुजले है भुतवा होई ।। १०५ ॥ शब्द ॥ १०६ ॥ भँवर उड़े वग बैठे आये । रैन गई दिवसोई चलि जाये। हल हल काँपे वाला जीऊ । ना जाने

  • का करिहें पीऊ ॥ काँचे वासन टिके न पानी ।'