पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • वीजक मूल १२३ ॥

कवीर कासो कहीं । सकलो जग अंधा ।। साँचे से । भागा फिरै झूठे कां वंदा ॥ ११३ ॥ शब्द ।। ११४ ।। सार शब्द से बाँचि हो । मानहु इतवारा हो। श्रादि पुरुप एक वृक्ष है । निरंजन डारा हो । त्रिदेवा शाखा, भये । पत्र संसारा हो ॥ ब्रह्मा वेद सही कियो । शिव योग पसारा हो ॥ विष्णु माया । उत्पत कियो। ई उरले व्योहारा हो । तीनि लोक दशहूँ दिशा । यम रोकिन द्वारा हो ॥ कीर भये । सब जीयरा । लिये विपय का चारा हो ॥ ज्योति स्वरूपी हाकिमी । जिन्ह अमल पसारा हो । कर्म की वन्सी लाय के । पकरो जग सारा हो ॥ अमल मिटावो तासुका | पठवों भव पारा हो ॥ कहहिं । कवीर निर्भय करों । परखो टकसारा हो ॥११४॥ शब्द ॥ ११५ ॥ संतो. ऐसी भूल जगमाही । जाते जीव मिथ्या में जाहीं ॥ पहिले भूले ब्रह्म अखंडित ।